कोई कहता है
ये इबादत है
कोई माने इसे तिजारत है ,
जो भी हो शय गज़ब की है यारों
वो जिसे सब कहें मुहब्बत है
दरमियाँ दूरियाँ बढीं शायद
जो नहीं अब कोई शिकायत है
बाँट के मुल्क टुकड़ों में ज़ालिम
शान से कह रहे सियासत है
सर उठाया जो पेट की खातिर
लोग कहने लगे बगाबत है
पल रहा खौफ़ जिनका है दिल में
मुल्क पर उनकी ही हुकूमत है
सारी दहशत छपी है आँखों में
अब सबूतों की क्या ज़रूरत है
देखो मजदूर कभी सोता हुआ
उस को बिस्तर की क्या ज़रूरत है
धूल में ही गया सारा बचपन
मुफलिसों की यही हकीकत है
ग़ज़ल बेहतरीन बन पड़ी है.. शुभकामनाएँ
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteवाह,सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह हर शेर अपनी बात कहता हुआ .. लाजवाब ...
ReplyDeleteवाह ! बहुत खूबसूरत |
ReplyDeleteलाज़वाब ग़ज़ल...हरेक शेर ज़िंदगी की सच्चाई बयाँ करता हुआ...
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