देह की सीमा से परे
बन जाना चाहती हूँ
एक ख्याल
एक एहसास ,
जो होते हुए भी नज़र न आये
हाथों से छुआ न जाए
आगोश में लिया न जाए
फिर भी
रोम - रोम पुलकित कर जाए
हर क्षण
आत्मा को तुम्हारी
विभोर कर जाए
वक्त की सीमा से परे
बन जाना चाहती हूँ वो लम्हा
जो समय की रफ़्तार तोड़
ठहर जाए
एक - एक गोशा जिसका
जी भर जी लेने तक
जो मुट्ठी से
फिसलने न पाए
तड़पना चाहती हूँ
दिन - रात
सीने में
एक खलिश बन
समेट लेना चाहती हूँ
बेचैनियों का हुजूम
और फिर
सुकून की हसरत में
लम्हा लम्हा
बिखर जाना चाहती हूँ
बूँद नहीं
उसका गीलापन बन
दिल की सूखी ज़मीन को
भीतर तक सरसाना
हवा की छुअन बन
मन के तारों को
झनझना
चाहती हूँ गीत की रागिनी बन
होंठों पे बिखर - बिखर जाना
जिस्म
और जिस्म से जुड़े
हर बंधन को तोड़
अनंत तक ..........असीम बन जाना
चाहती हूँ
बस........................................................
यही चाहत
बन जाना चाहती हूँ
एक ख्याल
एक एहसास ,
जो होते हुए भी नज़र न आये
हाथों से छुआ न जाए
आगोश में लिया न जाए
फिर भी
रोम - रोम पुलकित कर जाए
हर क्षण
आत्मा को तुम्हारी
विभोर कर जाए
वक्त की सीमा से परे
बन जाना चाहती हूँ वो लम्हा
जो समय की रफ़्तार तोड़
ठहर जाए
एक - एक गोशा जिसका
जी भर जी लेने तक
जो मुट्ठी से
फिसलने न पाए
तड़पना चाहती हूँ
दिन - रात
सीने में
एक खलिश बन
समेट लेना चाहती हूँ
बेचैनियों का हुजूम
और फिर
सुकून की हसरत में
लम्हा लम्हा
बिखर जाना चाहती हूँ
बूँद नहीं
उसका गीलापन बन
दिल की सूखी ज़मीन को
भीतर तक सरसाना
हवा की छुअन बन
मन के तारों को
झनझना
चाहती हूँ गीत की रागिनी बन
होंठों पे बिखर - बिखर जाना
जिस्म
और जिस्म से जुड़े
हर बंधन को तोड़
अनंत तक ..........असीम बन जाना
चाहती हूँ
बस........................................................
यही चाहत
बहुत अच्छी चाहत है आपकी।
ReplyDeleteसादर
कसक और तड़प लिये मर्म कओ छूती कविता ! सुंदर अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteऔर फिर
ReplyDeleteसुकून की हसरत में
लम्हा लम्हा
बिखर जाना चाहती हूँ
भावों का सुन्दर सम्प्रेषण ... अच्छी प्रस्तुति
बहुत सुंदर कविता !
ReplyDeleteआनंद आ गया पढ़ कर !
आभार !
मेरे मचान पर आपका स्वागत है !
बहुत सुन्दर रचना , सादर .
ReplyDeleteनूतन वर्ष की मंगल कामनाओं के साथ मेरे ब्लॉग "meri kavitayen " पर आप सस्नेह/ सादर आमंत्रित हैं.
जिस्म
ReplyDeleteऔर जिस्म से जुड़े
हर बंधन को तोड़
अनंत तक ..........असीम बन जाना
चाहती हूँ
बस........................................................
यही चाहत
Vah kya kahu ....bs ak shbd.....bemishal.
आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद , आपका स्नेह व हौंसलाअफजाई अत्यंत प्रेरणादायक हैं ..... आभार
ReplyDeleteजिस्म
ReplyDeleteऔर जिस्म से जुड़े
हर बंधन को तोड़
अनंत तक ..........असीम बन जाना
चाहती हूँ
अध्यात्मिक का पुट लिए यह रचना आपकी सोच और भावना को बेहतर तरीके से सांझा करती है ....आपका आभार
धन्यवाद केवल राम जी!
Deleteएक बूँद की चाहत है समंदर होना.
ReplyDeleteबहुत ही शानदार अभिव्यक्ति.
सार्थक लेखन.
शुभ कामनाएं.
धन्यवाद विशाल जी !
Deleteजाने मन कैसा होता है, कभी कभी स्वयं अपने लिए ऐसी चाहत कि दिल तडपता रहे... उफ्फ्फ्फ्फ़
ReplyDeleteतड़पना चाहती हूँ
दिन - रात
सीने में
एक खलिश बन
समेट लेना चाहती हूँ
बेचैनियों का हुजूम
और फिर
सुकून की हसरत में
लम्हा लम्हा
बिखर जाना चाहती हूँ
बहुत भावपूर्ण रचना, बधाई.
बहुत बहुत शुक्रिया शबनम जी!
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