प्रेम
हो या परमात्मा
कौन तुम?
अंतर, बाह्य, चहुदिशि, चहुँओर
आच्छादित तुमसे
अस्तित्व मेरा|
संशय में हूँ
अब मुझमें कितनी
बची शेष मैं?
या आवृत कर डाला है तुमने
सम्पूर्ण मुझे
पर देखो
कैसा ये आश्चर्य
कि इस संकुलता से
घुटते नहीं प्राण मेरे
न अकुलाते मुक्ति को|
नहीं, देखना भी चाहती नहीं
परे इस आवरण के
कैसा अनंत विस्तार
भर दिया मेरे अंतस में !
कौन तुम?
अंतर, बाह्य, चहुदिशि, चहुँओर
आच्छादित तुमसे
अस्तित्व मेरा|
संशय में हूँ
अब मुझमें कितनी
बची शेष मैं?
या आवृत कर डाला है तुमने
सम्पूर्ण मुझे
पर देखो
कैसा ये आश्चर्य
कि इस संकुलता से
घुटते नहीं प्राण मेरे
न अकुलाते मुक्ति को|
नहीं, देखना भी चाहती नहीं
परे इस आवरण के
कैसा अनंत विस्तार
भर दिया मेरे अंतस में !
रच दी मात्र मेरे लिए
दुनिया अलग है तुमने
सम्मोहित सी रहूँ विचरती
इसके हर कोने में
आत्मविमुग्ध
रह जाती विस्मित
पाती इतना जो था अज्ञात
क्या था मेरे ही मन में
कैसे और कब रच डाला मुझमें
ये तिलिस्म तुमने?
नहीं , कोई और तो नहीं
कर सकता चमत्कार ये|
निश्चित ही तुम
या तो प्रेम हो या परमात्मा........
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
सम्मोहित सी रहूँ विचरती
इसके हर कोने में
आत्मविमुग्ध
रह जाती विस्मित
पाती इतना जो था अज्ञात
क्या था मेरे ही मन में
कैसे और कब रच डाला मुझमें
ये तिलिस्म तुमने?
नहीं , कोई और तो नहीं
कर सकता चमत्कार ये|
निश्चित ही तुम
या तो प्रेम हो या परमात्मा........
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
धन्यवाद ब्लॉग बुलेटिन
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