Thursday 22 June 2017

यूँ अचानक आज इक मिसरा हुआ|

इश्क पर ज्यों ज्यों कड़ा पहरा हुआ|
रंग इसका और भी गहरा हुआ|

कह रहे थे तुम कि गुनती जाती मैं|
यूँ अचानक आज इक मिसरा हुआ|

मुस्कुराते तुम कि झड़ते जाते गुल|
चुन रही थी मैं अजी गजरा हुआ|

यूँ  रुका आँसू पलक की कोर पर ,
फूल पर शबनम का कण ठहरा हुआ|

चाह कर भी कह न पाए राज़े-दिल,
इस जुबां पर लाज का पहरा हुआ|

ज़िन्दगी को रू-ब-रू पाया कभी,
यूँ लगा कि मीत हो बिसरा हुआ|

नदिया के जैसी रवानी चाहिए,
सड़ने लगता आब है ठहरा हुआ|

कौन समझाए किसे, फुरसत कहाँ,
घर बुजुर्गों के बिना बिखरा हुआ|

पीछे कमरे में पड़े माँ-बाप हैं,
ज्यों कबाड़ या कि फिर कचरा हुआ|

सुनते थे इन्साफ है अंधा मगर,
साथ में शायद है अब बहरा हुआ|

था विवश कर्जे से पहले ही कृषक

मार से मौसम की अब दुहरा हुआ|

16 comments:

  1. हार्दिक आभार यशोदा जी

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  2. वाह्ह..लाज़वाब गज़ल शालिनी जी बहुत सुंदर👌👌

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    1. धन्यवाद श्वेता जी

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  3. इश्क पर ज्यों ज्यों कड़ा पहरा हुआ|
    रंग इसका और भी गहरा हुआ|
    बहुत ही सुंदर प्रस्तुति है आपकी शालिनी जी। बधाई।

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  4. जीवन के विविध रंग प्रस्तुत करती ,हमारे एहसासों से गुज़रती ख़ूबसूरत ग़ज़ल। बधाई।

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    1. हार्दिक आभार रविन्द्र जी

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  5. Replies
    1. शुक्रिया सुशील जी

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  6. आपकी इस उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार पुरुषोत्तम जी .... बहुत बहुत धन्यवाद

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  7. सुनते थे इन्साफ है अंधा मगर,
    साथ में शायद है अब बहरा हुआ|
    बहुत ही सुन्दर.....
    लाजवाब...

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  8. मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ बहुत दिनो के बाद आपको लिखते देखकर खुशी हुई।

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  9. सुधा जी एवं संजय जी आप दोनों का बहुत बहुत धन्यवाद

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  10. सुधा जी एवं संजय जी आप दोनों का बहुत बहुत धन्यवाद

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