Sunday 29 December 2019

केस बनती जाती औरतें


केस बनती जाती औरतें
अपनी संस्कृति और परम्पराओं पर
नाज़ करने वाले
तथाकथित .. एक सभ्य समाज में
सरे आम .... बस एक केस बनकर
फाइलों में दब जाती हैं औरतें
हाँ , केस बन जाती हैं
जीती जागती औरतें |
फिर शुरू हो जाती है एक लम्बी प्रक्रिया
या कहें .. प्रतीक्षा
न्याय की ,
 इस न्याय को पाने के लिए
जाने कितने अन्याय झेलती हैं औरतें
हाँ, न्याय की अँधी मूरत के सामने
खुद विवशता की मूरत बन जाती हैं औरतें |
दोहराई जाती है फिर–फिर
अमानवीयता ही नहीं पैचाशिकता की
दुसह्य गाथा
और थरथरा जाती हैं फिर-फिर
मात्र रूह बनकर रह गई औरतें|
कुछ पोस्टरों
कुछ नारों
कुछ कैंडल मार्च के बीच
आज़ाद घूमते या
जेल में मटन करी खाते दरिंदों के
भरे पेट और भूखी आँखों से
टपकती लार देख
फिर सुलग उठते हैं उनके
जले , क्षत-विक्षत तन
फिर एक और मौत मर जाती हैं
वो मर चुकी या
अधमरी औरतें |
हाँ, लोगों के लिए तो बस एक केस बन जाती हैं औरतें |
और्रतों का चल-चलन का पाठ पढ़ाते
पहनने-ओढ़ने का सलीका सिखाते
उनके हँसने-बोलने पर बदचलनी का सर्टिफिकेट दिखाते
समाज की पट्टी बँधी आँखों को
दुधमुँही बच्चियों के
नुचे हुए नर्म जिस्म दिखा
लड़कों की परवरिश पर
सवाल उठाती हैं
समाज को उसकी वहशत का आइना दिखाती हैं
खुद वहशत का शिकार बनीं औरतें|
केस-दर-केस  ..... केस-दर-केस
अनसुलझी गुत्थियों में उलझीं
समाज के सियाह पैरहन पर
आदमी की दरिंदगी का मैडल बन
लटक जाती हैं औरतें ......
पता है .... कल सब कुछ भूल
फिर काम पर लग जाएँगे,
खुले आम घूमते दरिन्दों के
फिर हौंसले बढ़ जाएँगे,
फिर किसी औरत की शाहिदगी का
इंतज़ार करेगा समाज
यूँ केस बनती औरतें के किस्से बढ़ते जाएँगे
कब तक ?
आखिर कब तक एक औरत को हम
केस बना कर
फाइलों की कब्र में दफनाएँगे ..
और  सभ्य कहलाये जाएँगे ??



Sunday 4 August 2019

तीन तलाक़

तलाक़! तलाक़!! तलाक़!!!
इतनी ही स्पष्टता और दृढ़ता से कहे गए थे
वे शब्द
गुडबाय फ़ॉर एवर!!!
और उसका मानो वक़्त वहीं थम गया।
प्यार का अभिमान ओढ़े
कुछ देर वहीं खड़ी सोचती रही वो
नहीं, ये शब्द उसके लिए नहीं थे ...
प्यार ऐसे नहीं तोड़ा जाता ...
शायद कुछ और ही होगा यह
शायद गुस्सा, या मज़ाक
पर वो नहीं रुका
न उसके आवाज़ लगाने पर मुड़ा।
 बेतहाशा वो दौड़ी ...
उसकी राह रोक
गिर पड़ी घुटनों पर ...
लाख मिन्नतों पर 
उसने पूरे अहसान के साथ
औरत की गलतियों की फेहरिश्त गिनवाते हुए
उसे माफ़ किया गया
और प्यार के अहसान से नवाज़ा गया...
अब दोबारा निकाह के लिए हलाला भी तो ज़रूरी था
तो हो गया
देह का नहीं
आत्म सम्मान का हलाला
प्यार के अभिमान का हलाला ।
अब प्यार की ज़िंदा लाश को दिल में उठाए
वो औरत प्यार की वापसी का जश्न मनाए
या हलाली का ग़म ???

दौर ए उदासी

दौर ए उदासी से खुद को बचा रही हूँ।
बैठे-बैठे बेवज़ह ही मुस्कुरा रही हूँ।

दिल के पास जाने दिमाग क्यों नहीं,
दिल की नादानियों पे पछता रही हूँ।

समझना होगा तो खुद ही समझ जाएगा,
नासमझ को जाने क्यों समझा रही हूँ।

ग़म पोश ज़िन्दगी में है खुशी कहाँ छिपी
नक़ाब दर नकाब मैं उठा रही हूँ।

शीशे के ख़ाब टूट के पलकों में जा चुभे,
किरच-किरच बीन फिर-से सजा रही हूँ।
 Shalini Rastogi

बस इतना सा अफ़साना

बस इतनी देर का ही था अफ़साना।
मेरा आना हुआ और उसका जाना।

नज़र की बात थी, नज़र ने समझी,
दिल ने दे दिया सुकूँ बतौर नज़राना।

बात अपने आप में ही थी मुक्कमल,
क्या समझते और किसे था समझाना।

रोज़ आने का वादा किया था उसने,
वो न आया कि रोज़ आया रोज़ाना।

फ़र्क कुछ तो रहा होगा कहने-सुनने में,
'दास्तां खत्म हुई' जो पड़ा ये भी बतलाना।




Friday 29 March 2019

राब्ता

राब्ता हुआ
दो रूहों के दरम्यां
और दो रूहें मिलकर
एक सिम्त हो गईं
फिर ज़िस्म ने सेंध लगाई
रूहों के दरम्यां
दो ज़िस्म मिले पर
रूहें जुदा हो गईं...
अब शिकायतें करती हैं रूहें
एक दूसरे से
कि हममें-तुममें नहीं रहा
वो पहले-सा
राब्ता
शालिनी रस्तौगी 

ख्वाहिशें


कभी इच्छाओं पर
कभी ख्वाहिशों पर
कभी आँखों, कभी कानों, कभी जुबाँ पर
वो एक – एक कर ताले जड़ती गई
चाभियों को संभाला तो था ....
कि कभो वक्त मिलेगा
कभी तो वह मौका आएगा ..
फिर खोल लेगी वह
इन तालों को
आज़ाद कर लेगी ख़ुद को
अपनी ही कैद से
पर .. अब जब वक़्त मिला है तो
उन जाम हुए तालों
और जंग खाई चाभियों के गुच्छे लिए
ढूँढती वह
किस ख्वाहिश पे लगे ताले को
खोले किस चाभी से ...
एक बार फिर क़ैद रह गईं
उसकी जुबाँ .... उसकी इच्छाएँ
उसकी ख्वाहिशें ...
  शालिनी रस्तौगी

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