Thursday 22 March 2018

अपूर्ण समर्पण

तुम्हें पाना असंभव है शायद
या कुछ कमी साधना में है मेरी।
शायद पूर्ण नहीं समर्पण मेरा
आधी-अधूरी है शायद
आराधना मेरी।
क्यों बोल मेरे  नहीं  जाते तुम तक
क्यों शून्य में लय हो जाती
पुकार है मेरी?
क्यों अर्पण मेरा अस्वीकृत होता,
क्यों तिरस्कृत हो जाती
भेंट है मेरी?
तुम ही कहो अब, मेरे देवता !
क्या प्रिय तुम्हें जो
कर पाऊँ मैं?
किस विधि, किस पूजा,
किस उपक्रम से
प्रसन्न प्रिय कर पाऊँ तुम्हें ?
क्या राधा का मैं वेश धरूँ
या मीरा-से जोग जगाऊँ मैं?
बन दीपक  प्रतिपल जलूँ या
बन शलभ क्षण में जल जाऊँ मैं।
किस राह धरूँ पग, जिस पर चलकर,
हे प्रिय! मैं पा जाऊँ तुम्हें
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

संकोच कर जाते हैं शब्द

संकोच कर जाते हैं शब्द
हो नहीं पाते मुखर,
इस क़दर
कि अनावृत कर डालें सभी
आदिम, मूलभूत कामनाएँ-क्रियाएँ।
हाँ, शब्दों से सजकर
स्वाभाविकता खोकर
खो देती  हैं सौंदर्य
कुछ भावनाएँ।
तो क्या हुआ जो
नहीं करते अतिक्रमण
उच्छृंखल नहीं होते
क्या पिछड़े हुए हैं
मेरे शब्द ??
~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

वीरांगना हूँ मैं

चलता है अनवरत
युद्ध मेरा जीवन से
कभी ज़रूरतों
तो कभी मजबूरियों के
वार करता है जीवन।
नहीं भागती
न हार मानती।
हर दिन कमर कस
उतर पड़ती हूँ
जीवन रण में
न सही लक्ष्मीबाई
पर हाँ
वीरांगना हूँ मैं
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

Wednesday 21 March 2018

प्रारब्ध

प्रारब्ध (लघुकथा)
"तुमसे तो हमारी कोई खुशी बरदाश्त नहीं होती, जब भी ज़रा खुश देखती हो तो कोई न कोई बखेड़ा खड़ा कर देती हो" बेटे के शब्द पिघले शीशे की तरह शांतिदेवी के कानों से होते हुए दिल में उतर रहे थे। कहने को तो बहू के लफ्ज़ बेटे से ज़्यादा तल्ख़ थे पर घाव बेटे के लफ़्ज़ों ने ज्यादा गहरे दिए। दिल में फफोले से भर गए और पीड़ा से आँखें छलक आईं। "अब फिर टी. वी. सीरियल की तरह नाटक शुरू" बड़बड़ाता हुआ बेटा गुस्से से बाहर निकल गया। सामने बैठे पोता-पोती सारे वाकये को सहमी-सहमी नज़रों से देख रहे थे। शांतिदेवी की डबडबाई आँखों में करीब 30-32 साल पहले का दृश्य घूम गया ...  कुछ ऐसा ही तो था बस फ़र्क इतना था कि किरदारों की भूमिकाएं बदली हुई थीं ... शांतिदेवी की जगह उनकी सास थी और बहू की जगह वह स्वयं थी और सारे झगड़े के चश्मदीद गवाह बन रहे पोता-पोती की जगह उनका यही बेटा जो अभी-अभी उन्हें कितनी ही जली-कटी सुना गया था।
सब कुछ वैसा ही है .... आज फिर कोमल मन में पारिवारिक मूल्यों की जगह विष बीज रोपित किए जा रहे हैं। इतिहास स्वयं को ही दोहरा रहा है पर साथ ही आने वाले कल की पटकथा भी लिखी जा रही है .... आज फिर भविष्य का प्रारब्ध लिखा जा रहा है ....
~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

Monday 19 March 2018

क़रीब आती है खुद मंजिल, इरादों को देख के

एक ग़ज़ल
~~~~~~~
तरसता दूर से है वो बस गुलाबों को देख के
जो दिल में खौफ खाए तीखे खारों को देख के

छिपा पाओगे कैसे राज-ए-दिल हमसे भला ,
कि मजमून भाँप लेते हैं लिफाफों को देख के

भँवर है किस जगह औ कितनी है गहराई यहाँ
पता चलता नहीं अक्सर किनारों को देख के .

कलाई में लचक तो पाँव में मेंहदी का कभी
यूँ शब-ए-वस्ल लौटे इन बहानों को देख के

करें बेपर्दगी की इल्तेजा अब क्यों हुस्न से
मचल जाए आशिक का दिल हिजाबों को देख के

छलावों से तेरे वादे यूँ भरमाते ही रहे
बुझे कब प्यास सहरा में सराबों को देख के .

जो दूर मंजिल,सफ़र मुश्किल, समय भी रूठे तो क्या ,
क़रीब आती  है  खुद  मंजिल, इरादों  को  देख  के

Sunday 18 March 2018

बात अब लंबी चलेगी

रात है, जाम है, बात अब लंबी चलेगी।
घूँट दर घूँट सरकेगी, शब धीरे ढलेगी।

अपने अश्कों में तर होके सीलेगी आतिश,
पिघलता दिल रहेगा, देर तक शम्मा जलेगी।

नींद, उम्मीद, ख्वाबों से हुई वीरान अब ये,
ता-उमर लंबी शब है, भला कैसे कटेगी।

जो खिंची होती काग़ज़ पे तो मिट भी जाती,
खिंच गई जो दिलों पर, लकीर कैसे मिटेगी।

बाँध बाँधे थे, सैलाब पर, रुकने न पाया,
दर्द बरसा है फिर अश्क़ की नदिया बहेगी।

तीर, तलवार, खंजर, भला क्या चोट देंगे,
तल्ख़ है ग़र ज़ुबाँ, सीधी जा दिल में चुभेगी।

लड़ रहे पेंच नैनों के, दिल दाँव पर है,
जाने किसकी पतंग दिल की कन्नों से कटेगी।

कायदा समझते तुमको भी, ग़र फायदा होता,
उम्र नादान है, बात क्या पल्ले पड़ेगी।

जब भी मैं प्यार लिखूँ

जब भी मैं प्यार लिखूँ
तुम पढ़ लेना खुद को उसमें ।
बिखरते लफ़्ज़ों को समेट
रच दूँ जब नज़्म कोई
तुम ढूँढ़ लेना
अनकहा पैगाम कोई।
कभी मुस्कुराते लब
और नम आँखें लिए
गुनगुनाऊँ जो मैं ग़ज़ल कोई।
तुम महसूस करना
उन अश'आरों में
खामोश -सी आह कोई।
कैनवास पर रंग बिखेरती
उँगलियों के अचानक थरथराने से
जो लहरा जाएँ लकीरें
देख लेना उस तस्वीर में
दिल में मचलती हसरत कोई।
इतना तो तय है
मैं जो भी रचूं
पोशीदा रहोगे तुम ही उसमें।


किरदार बदलती आँखें

निकल आते हैं हाथ
आँखों के...
सिर्फ देखती ही नहीं
देह टटोलती हैं
नाखून बन
जिस्म खरोंचती हैं आँखें।
लिजलिजे कीड़े-सी
भर देती हैं आत्मा में
जुगुप्सा
नहीं रहतीं सीमित आँखें
सिर्फ एक नज़र तक
भाले, बरछी, तीर बन
बींध देती हैं
उतर जाती हैं
कपड़ों के भीतर छिपी देह के
उन बेहद निजी
गलियारों में
घूमते-फिरते पाँव बन जाती हैं
आँखें।
बेहूदगी से ठहाके लगती
फूहड़ से तंज कसती हैं
बेहया ज़ुबान बन जाती हैं आँखें।
इंसानियत छोड़
 जाने कैसी वहशत पर उतर आती हैं
औरत जात को देख
किरदार बदल लेती हैं
कुछ मर्दानी आँखें ... 

अहं

अहं
बहुत सख़्त होते हैं ये अहं
जब भी आपस में टकराते हैं
लोग भले ही टूट जाएँ
पर अहं क़ायम रह जाते हैं।
ज़िद से पलते
पोषण पाते
बहुत बड़े होते जाते हैं ये अहं
हर संबंध , हर नाते रिश्ते से
ऊपर निकल जाते हैं अहं

Saturday 17 March 2018

रीती गागर

बूँद -बूँद रिसते,
जब रीत जाता है मन।
मन की खाली गागर लिए,
निकल पड़ती हूँ फिर,
भरने को उसमें
अनचीन्हे दर्द
~~~~~~~~~~
आँसुओं से सीले थे ख्वाब, सुलगते रहे न जल पाए।
बेड़ियाँ पाँव मेरे, तेरे पाँवों पंख, चाह के भी संग न चल पाए।
~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

चलो अब बराबर, हिसाब किए लेते हैं।

चलो अब बराबर, हिसाब किए लेते हैं।
कुछ तुम रख लो , कुछ हम रख लेते हैं।
हँसी - मुस्कुराहटों के पल तुम ले जाओ,
आँसू का हिसाब हम किए लेते हैं।
वो इंतेज़ार के पल, वो न मिल पाने की तड़प
मिल्कियत है मेरी, सहेज रखूँगी ता उम्र,
वस्ल की रातों के वो महके हुए लम्हें,
अमानत हैं तुम्हारी,  लौटाए तुम्हें देते हैं।
शिकवे शिकायतों की कुछ बोझिल सी यादें,
करवटों, बेचैनियों, अश्कों में डूबी रातें
सौंप दो मुझे, दिल से उतार बोझ इनका।
रूठने- मनाने, हँसने- गुनगुनाने के
पंखों से भी नाजुक नरम वो पल
लीजिए हवाले आपके कर देते हैं ...
चलो अब बराबर हिसाब कर लेते हैं।
~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...
Blogger Tips And Tricks|Latest Tips For Bloggers Free Backlinks