Monday 31 December 2012

आश्वासन ... अभय का



कम से कम
इस साल तो 
कुछ ऐसा नहीं होगा 

कुछ दरिंदे करेंगे 
इंसानियत का मुँह काला
हैवानियत के अट्टहास पे 
नहीं सिसकेगी 
मानवता 
कम से कम 
शायद 
इस बार तो ऐसा नहीं होगा 

सियासत फिर अपनी 
बेशर्मी का लबादा ओड़
नहीं छिपती फिरेगी 
नपुंसक से बहानों के पीछे 
खोखले वादों के पीछे 
झूठे आँसुओं और संवेदनाओं के पीछे

कम से कम 
शायद 
इस बार तो ऐसा नहीं होगा 

अपने ही देश में 
न्याय की गुहार लगाने पर 
नहीं खानी पड़ेंगी लाठियाँ
अपने ही रक्षकों के हाथों 
नहीं अब घसीटा जायेगा 
लड़कियों को सड़कों पर 
बेगैरती कुछ तो 
गैरत में डूब जाएगी 
शायद इस बार 

शायद
इस साल 
बेखौफ़ होगी जिंदगी 
गुलज़ार होगा जीवन 
सम्मानित मातृशक्ति 
पायेगी निज गौरव 
डरेगा न मन 
बेटियों के बाहर जाने पर 
कुछ आश्वासन दे 
ए नव वर्ष 
कि उल्लसित हो करें 
हम भी तेरा स्वागत 









Sunday 30 December 2012

मगरूर


गुरुर में हो गाफ़िल, कि दिल नवाजी से, साफ़ बचते हो
मसरूफियत है या कि बेरुखी जो हमें, दरकिनार किए रखते  हो .

पेशानी पे त्योंरियाँ, तल्खी औ तंज जुबां पे हरदम 
ज़माने भर की नाराज़गी, हम पे ही  बयाँ  करते हो

चार दिन की जिंदगानी में क्यूँकर हज़ार शिकवे- गिले
मुहब्बत से मिला करो , दुश्मन से भी अगर मिलते हो .

इस शहर में न मिलेगा,  हम-सा तुम्हें ए दोस्त कोई,
क्यों बेगानों की भीड़ में, दोस्तों का गुमां रखते हो .

बस बच रहा वो ही कि जिसने, ज़रा-सी लचक रखी खुद में 
कि टूट जाओगे चटक के जो न , झुकाने का हुनर रखते हो.

हक किसने दिया हुस्न या कि इश्क को मगरूर होने का 
बिन एक के दूजे की गुज़र, कैसे-कैसे मजाक करते हो 












दिल तो बच्चा है जी.....


सच में
बच्चा ही तो है दिल 

देखा है न आपने 
बच्चों को रूठ जाते 
बस ऐसे ही मुझसे कुछ 
रूठा-रूठा सा है 
मेरी गलती बस इतनी 
कि बड़े प्यार से 
बस.... थोड़ा-सा  
झिडक कर 
समझाया था इसे
पगले! जो तू चाहता है 
कैसे हो पायेगा 
यह दुनिया है 
अपने कानूनों पर चलती है 
तू जो चाहता पाना 
कैसे मिल पायेगा 
नहीं माना 
जिद्दी कहीं का .....
फिर थोड़ा डराया 
देख !
नहीं माना तो 
बहुत पछतायेगा 
ऐसी सज़ा मिलेगी 
जिंदगी भर न भूल पायेगा 
पर दिल तो ......
बच्चा ठहरा 
भला कैसे मानेगा 
कितना ही डराओ,धमकाओ 
पर कहाँ समझ पाते हैं 
जैसे घूम-फिर कर फिर 
बार-बार 
वहीँ आके अटक जाते हैं 
बस वैसे ही 
अड़ा हुआ है
क्या करूँ?
ज्यादा डराने से 
जैसे कुम्हला जाता है 
बच्चों का बचपन 
दिल में डर का साया थामे
कहाँ पनप पाते हैं 
उनके कोमल सपने 
बस ऐसे ही ये दिल भी 
कुम्हला जायेगा 
मासूम-सा बच्चा 
यक-ब-यक 
बड़ा हो जायेगा ...













Thursday 20 December 2012

कविता नहीं .... डर

(दो दिन से बहुत व्याकुल है मन ..... एकदम स्तब्ध ...... सहसा कोई प्रतिक्रिया कर पाना भी संभव न हुआ ...... लोगों की कविताओं में, विचारों में उनका आक्रोश पढ़ा ...... पर मेरा मन तो कहीं भीतर तक सिहर गया है )


नहीं
आज कविता नहीं 
अपना डर लिख रही हूँ 
वज़ह ...............
कई सारी हैं 
पर सबसे बड़ी 
एक जवान बेटी की माँ हूँ
(न न 
गलत मत समझिए 
रुढिवादी नहीं हूँ
कि बेटी को बोझ समझूँ )
और दूसरी 
 देश की राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहती हूँ 
रोज सुबह बेटी को जाना है 
कॉलेज
कॉलेज जो है दिल्ली में
बहुत फ़क्र था अब तक
कि दिल्ली के अच्छे कॉलेज में पढ़ती है 
पर आज 
हालात बदल गए हैं
फ़क्र की जगह लेली है 
एक अनाम से डर ने  
अब घर से निकल गाड़ी में बैठने तक 
अकेली होगी वह 
रास्ता भले ही दो कदम का हो 
पर होगी तो अकेली ही 
फिर मेट्रो पर गाड़ी पार्क कर 
स्टेशन तक भी अकेले ही जाना होगा 
और सारा दिन कॉलेज में 
फिर वापसी................
उसे तो समझाई हैं 
बहुत सारी
ऊँच-नीच, सावधानी की बातें ,
पर  खुले आम घूम रहें हैं 
जो दरिंदे 
उन्हें समझाने वाला है कोई?

क्या करूँ 
हरदम साथ रहना भी तो 
संभव कहाँ 
बड़े फ़क्र से कहा था 
पीछे नहीं रहेगी बेटी मेरी 
पुरुषों के कंधे से कंधा मिला 
चलेगी..... सामना करेगी हर चुनौती का 
आज अपना ही विश्वास 
क्यों डगमगाता सा प्रतीत हो रहा 
कहीं गलती तो नहीं की है..
क्या सुरक्षित है वह
दरिंदों से भरी दिल्ली में ........
आशा .........
वह क्या है ?
अब तो सहारा है बस 
आस्था का 
क्या कहा?
कानून और पुलिस पर आस्था! 
कैसा मजाक करते हैं ?
...............
अगर इतनी ही सक्षम होती 
पुलिस या फिर कानून
तो क्या हो पाता 
दरिंदगी का 
यह नंगा नाच .........
'डर'
क्या यही नियति बन जायेगी 
लड़कियों की
माँओं की ..........













Tuesday 11 December 2012

कौन तुम?


हे रहस्यमयी!
कौन तुम?

सद्यस्नात 
गीले केश झटक तुमने 
बिखेर दिए 
तुहिन हीरक कण
अपने हरित आँचल पर
नत मुख बैठ 
अब चुनतीं 
स्वर्णिम अंशु उँगलियों से 

हे स्वर्णिमा!
तुम कौन?

रवि बिंदिया
भाल पर सजा
जब निहारती 
सरित मुकुर में 
हो अभिभूत 
निज सौंदर्य से 
बिखर-बिखर जाती 
लाज की लाली 
मुखमंडल पर

कौन तुम ?
हे रूपगर्विता !

काली अलक 
सँवार तारों से 
कर अभिसार 
बैठी चन्द्र पर्यंक
किसकी प्रतीक्षारत

हे अनिन्द्य सुंदरी !
तुम कौन?

मंद मलयानिल से  
हटा कुहासे का झीना आँचल 
 अनावृत्त 
दीप्त देह तुम्हारी 
जगमग जग सारा 
बिखर गया हर ओर 
आलोक तुम्हारा 

हे आलौकिक आलोकमयी 
तुम कौन?






Tuesday 4 December 2012

पैगाम

1.
आज हौले से मेरा नाम कहीं, तेरे लबों पे चला आया है,
सरसराहट ने हवा की ये पैगाम.हम तलक पहुँचाया है.


याद  करके  मुझे, तूने  कहीं,  ठंडी  आह  भरी  है
दरिया के दामन पे बिछी,चांदनी ने ये  पैगाम दिया है.


सूरज की तपिश में थी, तेरे  जिस्म की हरारत 
लिपट के किरणों ने दामन से,तेरा अहसास दिया है .


कल तलक गैर था जो, आज है हमनवां मेरा 
तूने  न सही,  हमने ये हक़  खुद को दिया है 


2.



सरसराहटों में हवा की थी
एक मदहोश  सी खनक,
भूले  से  कहीं तूने
मेरा नाम लिया होगा

हिचकियाँ हैं कि
रुकने को तैयार नहीं हैं,
ज़िक्र मेरा कहीं तूने
सरेआम किया होगा .

शाख-ए-गुल लिपट कदमों से  
रोकती थी जाने से हमें
शायद जाते - जाते तूने 
मुड़ के हमें देख लिया होगा. 

पेश कदमी को तो तूने भी 
कोशिश हर बार  की 
हर बार किसी हिचक ने 
जुबां को रोक लिया होगा. 





Thursday 29 November 2012

बेतरतीब हयात


बेतरतीब है, बिखरी सी पड़ी है हयात,
चलो आज इसको करीने से सजाया जाए.

घर की हरेक चीज़, हर कोने में फैली हुई हैं यादें तेरी,
दिल की दीवारों पे इन्हें , सिलसिलाबार सजाया जाए. 

जिस्म से रूह तलक, गोशे-गोशे पर छपी हैं बातें, 
हर्फ-ब-हर्फ़  चुन-चुन के एक अफसाना बनाया जाए. 

वो तेरी हर बात जो, दिल को नाग़वार गुज़री, 
उन्हीं बातों से आज, अपने शेरों को सजाया जाए .

कहाँ तक संजोते रहें ग़मों को, जो बख्शे तूने ,
उन ग़मों को आज सीने में, अपने दफनाया जाए. 

बस्ल-ए-तन्हाई में है कौन, किससे गुफ्तगू करलें.
तन्हाइयों को भी आज, शोर सन्नाटे का सुनाया जाए.

रू-ब-रू आ, कि आँख मुंदने तक तेरा दीदार करें,
नज़र की तिश्नगी को तेरे दीदार से बुझाया जाए.

थम-सी गई है रफ़्तार-ए-जिंदगी, कि मौत दूर खड़ी, 
पैगाम जल्द आने का ,कासिद के हाथों भिजवाया जाए.

मुलाक़ात जब भी हो खुद से, कोई गैर जान पड़ता है,
गैरों से पेशतर खुद को,  अपना दोस्त बनाया जाए .

कुछ कमी सी है फिज़ा में, कि राग-ए-गुल फीके हैं ,
खून-ए-जिगर देके फूलों को रंगीन बनाया जाए .






Tuesday 27 November 2012

आज मन गोकुल हो गया


आज मैंने जाना 
क्यों बाँबरा था गोकुल 
बंसी पर कान्हा की

किस सम्मोहन में बंधी
चली आती थी गोपियां 
क्यों घेर लेती थीं गायें 
भूल हरी घास को चरना 
क्यों छिपा देती थी राधे 
क्या बैर था राधा का 
बंसी से कान्हा की 

कैसी मोहिनी होती है 
तान की 
पुलक उठते रोम 
सरस जाता तन 
भीज उठता है मन 
जमुना के जल से 
और बन जाता 
फिर 
गोकुल धाम .............

कोई-कोई दिन अपने आप में इतने अद्भुत संयोग लिए होता है कि विश्वास करना ही कठिन होता है कि हम वास्तविकता में हैं या स्वप्न जगत में विचरण कर रहे हैं| कुछ ऐसा ही अद्भुत संयोग मेरे साथ घटित हुआ| संध्या समय अपनी चचेरी बहन के विवाह में शामिल होकर रामपुर से वापस आ रही थी कि विद्यालय से सन्देश मिला कि कल सुबह जल्दी विद्यालय पहुँच कर पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी को इंदिरागांधी अंतर्राजीय एअरपोर्ट से लेने जाना है| एक क्षण को तो कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ| इतने महान बाँसुरी वादक... और कहाँ मैं .... क्या बात करुँगी ..... खैर जैसे तैसे रात बीती और सुबह में विद्यालय के सुशांत व अद्वेता ( head boy and head girl of our school) के साथ बुके लेकर टर्मिनल ३ पर पहूँच गई... पंडित जी पधारे साथ में उनको शिष्या सुस्मिता आचार्य भी थी ..... पंडित हरिप्रसाद जी सफ़ेद कुर्ते पायजामे पर मात्र एक शाल गले में डाले हुए थे .... ७५ वर्ष के लगभग आयु , दिल्ली की सुबह-सुबह की सर्दी और और सिर्फ इतने कम गर्म कपडे...... देख कर हैरानी हुई .... परिचय व बुके आदि देने की प्रारम्भिक औपचारिकताएं हुईं ..... रहा नहीं गया तो कह ही दिया.." पंडित जी, आपको ठण्ड नहीं लग रही है".... वे हँस पड़े ......बोले कि ठण्ड को तो जितना महसूस करो उतनी ही लगती है ...आखिर जो देसी घी अपने ज़माने में खाया है वो कब काम आएगा .... कितना सरल सा जवाब ...इतनी बड़ी शख्सियत और ऐसी सादगी देख कर भी हैरानी हुई ... राष्ट्रपति भवन से कवीन्द्र देवगन जी भी उनके स्वागत के लिए पधारे हुए थे पर उन्होंने पहले गुडगाँव आने को कहा ... और हम पाँच लोग गुरगाओं की और चल दिए ... रास्ते भर इतने अपनेपन और प्यार से बातें करते रहे कि मन में जो भी हिचक थी वो सब दूर हो गई .... गुडगाँव में हो रहे तीव्र विकास को देख वे आश्चर्य चकित थे .... उसके बाद जो बातचीत का सिलसिला निकाला तो अपने बचपन की बातें कि किस प्रकार अपने पिताजी की इच्छा के विरुद्ध उंहोने पहलवानी और अखाड़े को छोड़ संगीत के क्षेत्र को अपनाया , आज गुडगाँव में गाड़ियों की बढ़ती संख्या को देख लोगों की दिखावे की प्रवृति पर कटाक्ष करते हुए  कैसे विवाह में मिली हरे रंग की साईकिल को लोगों को दिखाने के लिए वे दिन भर उसपर घूमते रहे ... जब अद्वेता ने पूछा कि आपने किस उम्र से बाँसुरी वादन आरम्भ किया तो हँस कर बोले कि बस नौ वर्ष के रहे होंगे वे .... पर हैरानी की बात यह थी की आज भी जवानों की सी जिंदादिली से भरपूर उनकी बातें छोटे-बड़े सभी को अपने सम्मोहन में बाँध लेती हैं.... फिल्मों के क्षेत्र में अपने सफर की यादें ताज़ा करते हुए उन्होंने कहा कि सबसे पहले उन्होंने ही अमिताभ जी से 'रंग बरसे '(सिलसिला) और श्री देवी से चांदनी फिल्म में गाना गवाया था.... बातचीत के बीच कब 20-25 मिनट बीते और होम गुडगाँव पहुँच गए | इसके बाद उनके स्वागत-सत्कार का भार प्रधानाचार्या जी को सौंप दिया | इसके बॉस विद्यालय के ऑडिटोरियम में पंडित जी के बाँसुरी वादन का इंतज़ाम किया गया था... अन्य विद्यालयों से भी बहुत से लोग कार्यक्रम हेतु आए हुए थे... पंडित जी स्टेज पर पधारे व  कार्यक्रम का औपचारिक शुभारम्भ किया गया ...  सबसे पहले अपने साथीयों का परिचय देते हुए पंडित जी ने सुबह का राग 'ललिता' अपनी बाँसुरी पर छेड़ा ... सारा माहौल उस धुन में खो सा गया... इसके बाद तो फिर कई भजन , सुस्मिता का बांसुरी वादन , बच्चों द्वारा बहुत से प्रश्न बस ...पता ही नहीं चला की कि समय कैसे बीता...
अब सोच रही हूँ लग रहा है कि वाकई यह सब सच था य सपना .................

Sunday 18 November 2012

हम वर्तमान में कब जीते हैं?



हम वर्तमान में कब जीते हैं?
वर्तमान, 
जो है नित्य  
अनादि और अनंत,
उस वर्तमान को त्यज,
सदा दौड़ते  रहते, 
अतीत की परछाइयों के पीछे 
या 
भावी परिकल्पनाओं में खोए
विमुख 
अपने आज से 

यादें अतीत की 
घेरे रहती 
चहुँ ओर .
बार-बार धकेल देतीं 
भूत के उस 
अंतहीन कुएँ में 
जिसका नहीं 
कोई ओर-छोर 
और ........
जैसे-तैसे 
खींच यदि 
वापस भी लाएँ
खुद को हम 
तो भविष्य 
सुनहरे सपनों के 
बुनकर जाल 
न जाने कितनी
मृगतृष्णाओं में उलझा
भटकने को करता
विवश

अतीत के अन्धकार में 
तो कभी 
भविष्य के विचार में 
भरमाते हम 
खो देते हस्तगत 
वर्तमान के 
मोती अनमोल 
कुछ अद्भुत पल 
खट्टे-मीठे से
कुछ प्यार भरे
सुकून के क्षण  

और बदले में 
हाथ क्या आता?
एक मुट्ठी यादों की राख,
कुछ सूखे मुरझाये पत्ते,
कुछ हाथ न आने वाली
स्वप्नों की
रंगीन तितलियाँ  
जो पल में ओझल हो जातीं 
भरमा कर


बीते और आने वाले 
लम्हों में खोए
हम 
वर्तमान में कब जीते हैं?




Wednesday 14 November 2012

आगमन तुम्हारा


बिल्कुल अभी -अभी
एक दस्तक सी सुनी थी 
दरवाजे पर 
शायद घर के
या फिर दिल के 
बदहवास दौडी थी 
खोल द्वार देखा तो
कोई न था 
दूर - दूर तक 
पर हाँ 
बिछी थी नरम हरी दूब
सद्य पदांकित 

पूछोगे 
दूब पर पदचिह्न ?
हाँ 
क्योंकि झुके हुए थे 
गर्वोन्नत तृण शिर 
श्रद्धा नत 
पाकर पद स्पर्श 

काश!
बिछा  होता  वहाँ 
अभिमान मेरा
चरण धूलि पा
हो जाता पावन
पर नहीं था
मेरे भाग्य में 
पद स्पर्श तुम्हारा 

क्यों न खोल रखा 
द्वार ह्रदय का 
क्यों कपाट बंद कर 
लीन स्वयं में 
जान न पाई 
आकर  गमन तुम्हारा ......


बदनाम वफाएं




कब मेरी बदनाम वफाओं ने, तुम्हें इल्ज़ाम दिया है,
ये तेरी ही जफ़ाएँ हैं  जो, हंगामा मचा देती हैं.

दुनिया भी शातिर बड़ी कि धुआँ उठते देख, 
आतिश-ए-इश्क  की अफवाहें फैला देती है.

माहिर है बड़ी दुनिया, गढ़ने में नए अफ़साने,
हर बात का रुख अपने ही हिसाब से घुमा देती है .

भेजे भी न गए हमसे, जो पैगाम कभी तुम तक,
मजमून उन लिफाफों के, बतफ़सील बता देती है .

खताबार हो कोई  और इलज़ाम किसी पे 
खुद अपने ही कायदे नए , हर रोज बना लेती है  

खाक कर दे न जिस्म,  कही खलिश दिल की 
भीतर से तो ये तपिश , दिन-रात जला देती  है ......










Friday 9 November 2012

दिल के जज़्बात

आज की यह पोस्ट आमिर भाई के नाम जिनके सौजन्य से आप मेरे ब्लॉग का यह नया रूप देख रहे हैं .. और यह नया नाम भी... काफ़ी दिन से आमिर भाई सुझाव दे रहे थे कि ब्लॉग का स्वरूप कुछ परिवर्तित होना चाहिए ..पर मेरे जैसे गैर तकनीकी इंसान के लिए यह एक बहुत मुश्किल काम था... आज आमिर ने अपना बहुत सारा समय देकर मेरे ब्लॉग को यह नया जामा पहनाया है जिसे देख मैं आश्चर्यचकित हूँ ... आमिर भाई, दुबई में रहते हुए भी भारतीय ब्लोगेर्स के लिए बहुत सहयोग कर रहे हैं व उनके कई ब्लॉग नए ब्लोगर्स की मदद के लिए तकनीकी व अन्य उपयोगी जानकारी उपलब्ध करवाते हैं ... उनके कुछ ब्लोग्स के लिंक इस प्रकार हैं ...

मास्टर्स टैक टिप्स 

मोहब्बत नामा 

इंडियन ब्लोगर्स वर्ल्ड 


आमिर भाई, आपके सहयोग के लिए तहे दिल से आपकी शुक्रगुज़ार हूँ ..आज के समय में आपके सामान निस्वार्थ भाव से किसी की मदद करने वाला इंसान मिलाना मुश्किल है ....आशा है आप आगे भी ऐसे ही मार्गदर्शन करते रहेंगे...... आज की पोस्ट आपके नाम ....




दिल के जज़्बात कुछ इसतरह , 
सारी कायनात में बिखर गए .
कुछ अश्क बनके बह गए, 
कुछ अशरार बन नगमों में ढल गए .

चाँद की बज़्म में कमी सी दिखी तो, 
सितारे बन रात के दामन टंक गए .
जुगनू बन जलते-बुझाते वो रहे,
 जज़्बात जो ज़माने से डर गए .

सख्त राहों पे न हों पाँव घायल
फूल बन उनकी राहों में बिखर गए .
दिल के सुलगते ज़ख्मों पर , 
बरसात बन करके बरस गए .

आह दिल से उठी तो पलकों पर, 
बूंद शबनम की बनके ठहर गए .
किसी आहट पे बेतरह चौंक, 
दिल की धडकन बन सिह- सिहर गए.

वजूद औलाद का जहाँ में लाने को, 
बन पसीना पेशानी पे माँ की छलक गए.
मंदिर का दिया बनके झिलमिलाए, 
कभी मस्जिद की अज़ानों में खुदा तक गए .



Monday 5 November 2012

मेरे शहर के लोग

कहने को हाथ मिलाते हैं, गले लगते हैं मगर 
दिल में कुछ और जुबां पे कुछ और ही रखते हैं 


नफासत पसंद हैं, खुशनवीस है मेरे दोस्त 
मौत के पैगाम भी सजा के लिखा करते हैं 



कितने पुर खुलूस हैं मेरे शहर के लोग
अमन के लिफ़ाफ़े में दहशत का मज़मून रखते हैं 


चर्चा-ए-अमन है सरगोशी से हर तरफ
दहशत का सामान मगर बादस्त रखते हैं 

गुमाँ पाले बैठे हैं दिल में  फरिश्ता होने का 
इंसान होने का भी मगर, कहाँ ये शऊर रखते हैं 

हवाओं में बेकरारियाँ, सरगोशियाँ फ़लक पे 
खुदा खैर कि तूफ़ान, आमद को सफर करते हैं 

जिस तरफ नज़र जाए, एक भगदड़ सी मची है 
अपनी कहने कि फुरसत न सुनने का सबर रखते हैं

चाँद के दाग गिनाते उन्हें भी देखा है अक्सर
स्याह दामन के जिनके अब दाग नहीं दिखते हैं 

बेगैरती का चश्मा कुछ इस तरह  आँखों पे चढ़ा है
मुफलिस के आँसुओं में इन्हें वोट दिखा करते हैं 

अपाहिज की वैसखियों से भी वो नोट कमाते हैं 
दानिशमंदी का दिखावा जो सरेआम किया करते हैं 


( पुर खुलूस - प्रेम से भरपूर, बादस्त- हाथों में, खुशनवीस- सुन्दर लिखावट वाला))

Tuesday 30 October 2012

खता मुआफ


खता प्यार करने की है, मुआफी के तलबगार हैं
खता मुआफ हो, हाँ हम  ही गुनाहगार हैं.

कब  तुमने हमसे वफाओं का, कोई सौदा किया था,
जफ़ाओं की तिजारत के तेरी, हम ही खताबार हैं.

दिल की गलती कि वो टूटा, क्यों शीशे का बना था
संग-ए-जफा खा के अब,  बिखरने को भी तैयार हैं

फितरत है हमारी तो अश्कों में जज्ब होने की,
तल्खियाँ तुम्हारी कब, सख्त इतनी बेशुमार हैं

रकीब खुद ही बन बैठे हैं , जाने कैसे अपने प्यार के
दिल चाहे तुम्हें तो रोकें, कहते कि नाफरमाबरदार है.

लुटा के खुदी को बने बैठें हैं हम फ़कीर,
जमाना  समझे  है कि अब भी ज़रदार हैं .



Wednesday 24 October 2012

इंसानियत


दिल से निकाल मंदिर-औ - मस्जिद में कैद कर दिया ,
खुदा ने तो नहीं बाँधा था अपने-आप को इन खाकों में .

नवाज़ा था जिसको 'अशरफुल मख्लुकात' के खिताब से
लिए फिरते हैं अब रावण के दस सर अपने शानों पे.

सुनाई पड़ती अब कहाँ कृष्ण कि बंसी फिजाओं में
बस गूँजती अब धनुष की टंकार सबके कानों में

प्यार का पैगाम दिया करते थे जो गीता कुरान
बनते जा रहे अब हथियार, कुछ नामुराद हाथों में

धर्म के ठेकेदार बन जो फतवे दिया करते हैं यों
मानो  खुदा ने सौंप दिए, अपने फरमान इनके हाथों में

कहाँ सुलेमान अब जो चींटियों को भी कुचलने से बचा ले
कुचल कर बढ़ रहे हैं बेबसों को, अपने जल्लाद पांवों से

मिली है काबीलियत तो इंसानियत का सर ऊँचा करो,
पहचाने जाओ जो तवारीख में , अपने नेकनामों से.



Sunday 21 October 2012

भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार ..............
मैं क्यों लिखूँ
इस विषय पर
मुझे राजनीति से क्या?
जो चाहे, होता रहे बस
होतें हैं करोड़ो के घोटाले
तो हों
मेरी जेब से क्या जाता है?
मगर........
देश की वो पूँजी
जो भ्रष्ट नेताओं ने डकारी
खुद और अपने सगों में
मुफ्त की खीर समझ बाँटी
कुछ योगदान
तो मेरा भी था
उसमें
आखिर मैं हूँ
देश की
एक ज़िम्मेदार नागरिक
भरती नियमित टैक्स
जो देश हित में न लग
पहुँच जाता
भ्रष्टखातों में ..........



Friday 19 October 2012

बातें कुछ यहाँ - वहाँ की

बहुत से शेर इधर उधर लिख कर छोड़  दिए .... आज सोचा..... क्यों न कुछ शेरों को समेटा जाए ....

1,बेबसी 
कायदा सीखा न कभी ककहरा पढ़ा शायरी का,
मोहतरम शायर होने का गुमां लिए फिरते हैं. 
कभी काफिया तंग  हो जाता है,  तो कभी, 
लफ्ज़  कतरा-कतरा के निकल जाया करते हैं . 

( यह मैंने सिर्फ अपने लिए लिखा है... कृपया कोई भी इसे अन्यथा न ले|)

2. इज़हार-ए-मुहब्बत

अश्क के  पलक  की कोर तक आते - आते
राज ए दिल ज़ुबां की नोक तक आते - आते
नामालूम  कितनी सदियाँ बीत गई
अपनी मुहब्बत ए सनम जताते - जताते

 3.  बेरुखी

यूँ तो मुद्दतों उनसे मुलाकात नहीं होती
आमने-सामने होते हैं मगर बात नहीं होती.
वो तो देख के भी  फेर लेते हैं नज़रें हमसे,
अपनी निगाह भी कभी गुस्ताख नहीं होती.

 कहने को तो हजार बातें हैं लबों में दबी हुई 
 मगर क्या करें दिल की तो  जुबान नहीं होती, 
कांपने लगते हैं लब लड़खड़ा जाती है जुबान
बेरुखी उनकी ए दिल अब बर्दाश्त नहीं होती 

4. ज़ख्म

उसका दिया हर जख्म था हर्फ़ की मानिंद
उकेरा हुआ किताब ए दिल के हर वरक पे
लाख कोशिश  की मगर, मिटाया न गया
मिटाना जो चाहा तो मिट गई हस्ती दिल की

5. शीशा-ए-दिल  

वैसे तो टुकड़े किये हैं हजार बार उसने दिल के   ,
हर बार बड़े जतन से हमने उन्हें जोड़ा है .
जोड़ना चाहें भी तो अब न जुड़ेगा  फिर से ,
अबकि किरच-किरच कर उसने दिल छोड़ा है .

6. संगदिल 

अब कौन बात करे उस संगदिल से  दिल नवाजी की
हर बात का  जो दो टूक जवाब दिया करते हैं  
बने फिरते  हैं बड़े सख्त दिल जो दुनिया के लिए 
अपने सवाल पर अश्क अक्सर बहाया करते हैं 

7.आफताब

आफताब हूँ ,ताउम्र झुलसता - जलता रहा हूँ 
पर सौगात चांदनी की तुझे दिए जा रहा हूँ मैं .

रातों के सर्द साए तेरे आंचल पे बिछा कर 

खुद फलक से दरिया में छिपा जा रहा हूँ मैं .


जलें न मेरी आंच से कहीं चश्म-ए-तर तेरे ,


सितारों की बारात छोड़े   जा रहा हूँ मैं.







Thursday 18 October 2012

गैरियत


कभी तपाक से मिलते थे, गले लगते थे, पास बिठाते थे
गैरियत का अब आलम देखो, दूर से ही कतरा के निकाल जाते हैं

बेतकल्लुफी इतनी थी कि,  तू तड़ाक भी मीठी लगती थी
अब तो 'आप' और 'जनाब' से, फासले बढ़ाए चले जाते हैं .

खामियों पे चिढकर वो रूठना उनका, था दिल के बहुत करीब,
नज़रअंदाजी  से उनकी मगर,  दिल पे तेग से चल जाते हैं

लगाये नहीं लगता हमसे, उनकी बेरुखी का हिसाब ,
शिकवे-शिकायतें तो  मुहब्बत के खाते में चल जाते हैं .

लाख दीवारों पार भी पहुँच जाती थीं दिल की सदाएं उन तक
अनसुना हर पुकार को कर, बेज़ार हो  निकल जाते हैं.


Tuesday 16 October 2012

ज़िक्र तेरा


महफ़िल में आते ही उसके समां महक सा जाए है
साँसों से जिगर में उतर जाए, ज़िक्र तेरा इत्र गुलाब .

रोशनी में नहला जाए  , रौशन जहाँ को कर जाए है 
ज़र्रे ज़र्रे को जगमगा जाए , ज़िक्र तेरा जैसे आफताब 

हर शिकवा मिट जाए , गिला जल हो जाए है ख़ाक 
चटक के जलता है यूँ , ज़िक्र तेरा  संदल की आग 

रुमानियत सी बिखर गई फिजाओं में दूर तलक
रंगों की बारात सजाए, ज़िक्र तेरा है गुल शादाब 

सर से पाँव तक पाकीज़गी में सराबोर कर गया 
रूह तक भिगो जाए है , ज़िक्र तेरा गंगा का आब 

एक शोखी थी, नजाकत थी,अदब था और  अदा थी 
ज़िक्र तेरा जैसे  उस शोख का नजाकत भरा आदाब 

Wednesday 10 October 2012

मुंतज़िर............


मुंतज़िर बैठे हैं तेरी राहों में कब से पलकें बिछाए,
रास्ता भूल के कभी तू भी, गाहे बेगाहे आजा.

वफाएं तो न थी कभी और न कभी होंगी शायद,
सवाल -ए-रस्म है, जफ़ाओं की रस्म निभाने आजा.

रिसते जख्मों पे चढ़ा जाता है बीतते वख्त का  मुलम्मा,
कर  कोई  तरकीब नई , फिर नया जख्म लगाने आजा .

रुसवाई सरेआम मेरी, भुलाने सी लगी है दुनिया,
फिर कोई इलज़ाम नया, मेरे माथे पे सजाने आजा. 

अरसा हुआ जाता है देखे खुद को, भूल चुके हैं शक्ल,
आँखों का अपनी आइना, फिर एक बार दिखाने आजा.

महफ़िल को मेरी वीरां कर छोड़ा है कबसे ,
गैर के रक्स में ही सही,पर शम्मा जलाने आजा .

हमराज़ मेरे, गुनाह -ए - उल्फत की सज़ा,
दे फिर एक बार, अश्कों में डुबोने आजा.

पेशोपश में फिर दिल, जियें कि मर जाएँ,
मरने के इरादे को फौलाद बनाने आजा.

क्यों हम ही तेरी वज़्म से, खाली हाथ लौटें  ए 'दिल',
अश्कों की सौगात से, गम की बारात सजाने आजा. 







Friday 5 October 2012

रुखसती


रुखसती की भी कोई रस्म हुआ करती है, 
यक-ब-यक रास्ते हमसफ़र बदला नहीं करते.

आसुओं  में  धुले वादे, कुछ दोबारा मिलने की कसमें,
सिसकियों में दबे अल्फाज़, गिरह में बंधे कुछ हसीं पल,
साजो-सामान ये सब विदाई का हुआ करते हैं, 
यूँ खाली हाथ तो किसी को विदा नहीं करते


बेचैनियाँ बिछडने की, कशमकश कहीं खोने की 
कुछ अनकही कह देने की, कुछ कही-सुनी भूल जाने की
हजारों बातें  जुदाई की दरकार हुआ करती हैं 
खामोशियाँ से तो तन्हा सफर कटा नहीं करते 

ठिठक कर उठते हैं कदम, पलट फिर लौटती हैं नज़रें 
लरजते लबों की जुम्बिश, हवाओं में लहराता दामन
रोक महबूब को लेने की ख्वाहिशे बेशुमार हुआ करती है 
इन लम्हों को हाथ से यूँ, फिसलने दिया नहीं करते 

Thursday 27 September 2012

राज़-ए-जिंदगी


राज़-ए-जिंदगी जानने को, उठाए ही थे कदम 
सफर शुरू भी न हुआ था, कि जिंदगी तमाम हुई|

हज़ार झंझटों में उलझी जिंदगी कुछ यूँ बेतरह 
कि पेंच-औ-ख़म निकालते जिंदगी कि शाम हुई |

बुलाती  थीं  रंगीनियाँ  और  शौक  रोकते  थे हमें,
दो का चार करते रहे हम, मनो जिंदगी हिसाब हुई|

शिकायतें इस कदर हमसे जिंदगी को और जिंदगी से हमें 
तंज देते एक दूसरे को , कि जिंदगी इल्ज़ाम हुई |

कोशिशें जारी थी कि किसी ढंग तो संभाल जाए
हर सूरत-ए-हाल में, बद से और बदहाल हुई|

ख्वाहिशें इतनी कि ताकते रहे फलक को हम
पैरों तले खिसकी ज़मीं तो असलियत बहाल हुई|

जिस्म से रूह तक उतर गई ये कैसी तिशनगी थी
बंद मुकद्दर के मयखाने, जिंदगी खाली जाम हुई|

फिर-फिर लौट आती  रहीं मेरी सदाएं मुझ तक,
बेअसर दुआएँ मेरी, घाटी में गूँजती आवाज़ हुईं|


Tuesday 25 September 2012

आत्ममुग्धा का आत्मविमोह


और फिर
एक साँझ
देर तक बैठे रहे
हम साथ
बहुत कुछ कहती जाती मैं
और सुनते जाते तुम
अधरों पर जाने कैसा 
मौन धरा था 
तुम्हारे
फिर दूर किसी खाई से जैसे
आती आवाज़ सुनी थी....
"नहीं संभव मिलन हमारा"
लहरों की  छाती पर 
छितराए रंग
औचक ही डूब गए थे,
और मेरे मुख पर बिखरी
स्याही, 
घुल साँझ के रंग में
कर गई उसे थी
सुरमई...
स्तब्ध खड़ी सोचती मैं
क्या मेरे ही दुःख से
हो गई प्रकृति
रंगहीन.....................

Sunday 23 September 2012

आत्ममुग्धा


उस दिन 
साथ चलते-चलते
छू गया था जब
हाथ तुम्हारा
मेरे हाथ से
कपोलों पर मेरे 
बिखर गया 
सिन्दूर
प्राची ने समेट जिसे
अपनी माँग में सजाया
और साथ-साथ मेरे प्रकृति भी 
हो उठी थी
अरुणिम

हृदय हर्षाया 
तन की पुलक से
हरियाई थी दूब
भावों का अतिरेक 
जल कण बन 
नयन से टपका
और ओस बन ठहर गया
तृण नोक पर

स्पंदित हृदयतंत्री के तार 
झंकृत हो उठा 
संसार 
कुछ न कह कर
सब कुछ कहते 
लरजते होंठ खुले
और
मूक अधरों का 
मुखरित मौन 
कलरव बन फ़ैल गया
चहुँ ओर 
कितने ही भाव 
अनगिनत रंगों के 
उपजे उस पल 
और छिटक गए 
फूल, तितली, इन्द्रधनुष बन 

रंगों की अद्भुत होली 
देख सोचती
मुग्धा मैं
क्या मैंने ही इस प्रकृति को 
कर डाला 
रंगीन ......



Friday 21 September 2012

गुनाहगार


हज़ार शिकवे तेरे , बेबुनियाद सी शिकायतें
सिर झुकाए सुनते रहे हम, गुनाहगार-से |
काश! दिल में न रख कह देते अपने भी मन की,
तो यूँ न सुलगते भीतर ही भीतर , अंगार-से |

पहल तुम्हारी थी, मुहब्बत  का जो यकीं दिलाया था, 
फिर बेरुखी से हाथ झटक, दामन भी तुमने छुडाया था|
खुदा  बन  के  तुम  फरमान  दिए  जाते  थे
बुत  बन  के  हम खड़े  थे, तेरे  हर  इलज़ाम  पे|

हलफ उठाने को भी थे राज़ी कि मान जाओ तुम  
इस बार जो बिछड़े तो किसी सूरत , जी न पाएंगे 
यकीं तुम्हें न था कि पलट के जाँचते थे तुम 
जान कितनी बची है बाकी,  तेरे जाँ- निसार में   


Monday 17 September 2012

यकीन


यकीन है तो  कुछ उसकी, वज़ह भी होनी चाहिए
बेवजह ही तुझ पे यकीन, हम किए जाते हैं .

इंतज़ार का दीया भी, बुझ चला है अब तो
ये तो हम हैं जो बुझ- बुझ के भी जले जाते  हैं .

आस की डोर है जो टूट  के भी छूटती ही नहीं
साँस की डोर  पकड़े, मर-मर के जिए जाते हैं.

सुना था दर से तेरे कोई लौटता नहीं खाली
खाली दामन, और अश्क आँखों में लिए जाते हैं 

Sunday 16 September 2012

प्रतीक्षारत


न मालूम
कितने संकेत,
कितने सन्देश,
लिख भेजे तुम्हें
कभी हवा के परों पर
कभी सागर  की लहरों पर .
कभी सूरज कि किरणों को ,
चाँद की  चांदनी में भिगो .
कभी तितलियों के पंखों से रंग समेट,
इंद्र धनुष की पालकी पर चढ़ा.
ह्रदय का हर अनकहा  भाव
पल-पल डूबती उतराती आस.
लिखा था  मूक मन का  हर मौन
आँखों से मोती सहेजसंवारी कथा
भेजा था हर संदेस इस विश्वास से
कभी तो पहुंचेगा तुम तक
समझ पाओगे तुम, मेरी व्यथा
पर न मालूमकहाँ हुए विलीन
सन्देश मेरे
लहरों के जल में घुले
या हवा के झोंकों में बहे
रात की कालिमा में जा मिले
या रंग बन धरा पर बिखर गए
न पहुँच पाए तुम तक
पर आज भी मैं
प्रतीक्षारत


Thursday 13 September 2012

क्षितिज



एक सुरमई साँझ
दूर क्षितिज पर 
उदास बैठी धरती ने
हसरत भरी नज़र से 
देख गगन को यूँ कहा ....
हरेक के लिए इस दुनिया में 
है एक क्षितिज 
जहाँ 
हम- तुम मिलते हैं 
पर मैं और तुम 
क्यों नहीं रच पाते 
अपना कोई क्षितिज 
जहाँ तुम 
अपनी विशाल बाहों में 
समेट लो मेरा वजूद 
जहाँ हम मिलते से 
आभासित ही न हो 
वरन
मिल हो जाएँ 
एक 

Friday 31 August 2012

तेरा दीदार


आ जाओ रू-ब-रू एक बार कि तेरा दीदार फिर कर लें
दिल के सहरा पे बरसो, कि फिर बहार  हम कर लें

नज़रों  से पी जाएँ तुझे कि रूह में उतार लें
प्यास एक उम्र की तमाम हम   कर लें


छिपाए नहीं छिपता ये दर्द अब इन आँखों में
बरस कर सावन को आज  , शर्मसार हम कर दें

मुतमईन रह कि राज़, ना जान पायेगा कोई
रुसवा न हो तू कि बदनामी, सरसाज हम कर लें 

Monday 27 August 2012

प्यार............. ?



प्यार
एक ऐसा बीज 
जो
अंकुरित होते ही
न सिंचित हो
प्रतिप्रेम के जल से
तो
ह्रदय कि मरुभूमि में ही
दफ़न , 
सूख जाता है

हाँ
अंकुरित हुआ था कभी
इस दिल कि जमीं पर भी
बहुत उम्मीद के साथ 
ताकती थी तुम्हे
शायद आज तो कहोगे
कि हाँ, 
तुम्हें भी
हो गया मुझसे प्यार 
अच्छी लगती हूँ मैं
मेरी सभी खामियों के साथ 
चाहते हो तुम मुझे
दीवानावार

पर शायद तुमने सदा 
उस प्यार को 
अपना अधिकार ही समझा 
और 
मेरा कर्त्तव्य 

पर.. जिस प्यार को देखना चाहा 
तुम्हारी नज़रों में
वो प्यार शायद था ही नहीं
तुम्हारे मन में
हर रोज उम्मीद की एक शमा
जलती - बुझती रही 
और पिघलता मोम 
झुलसाता रहा
प्रेमपल्लव 

आज
तुम करते इज़हार 
कहते बार - बार
कि तुम करते मुझसे प्यार.

मुझे भी परवाह तुम्हारी
हर छोटी - बड़ी बात की फ़िक्र  तुम्हारी
जानती कि नहीं रह पाऊँगी 
 तुम बिन अब
आदत बन चुके हैं 
एक-दूसरे की  हम 
बहुत सोचती हूँ तुम्हारे लिए
पर अब शायद
प्यार............. ?



यादें

यादें  खँगालने के लिए 
ज़रूरी नहीं
कि यादों के शांत जल में 
पत्थर ही फेंका जाए
एक छोटी सी बूँद ही 
भँवर उठा देती है
दूर - दूर तक उठती हैं तरंगें 
वर्तमान का प्रतिबिम्ब मिटा देती हैं.
और भँवर के हर वलय में 
दिखते हैं
अतीत के चलचित्र
जो एक दूसरे में मिल
और भ्रमित कर जाते हैं
और अतीत की छाप 
हम अपने वर्तमान पर लिए
कुछ और स्मृतियाँ 
सहेज उन्हें 
दिल के ड्राइंग रूम की 
दीवारों पर सजाते हैं 


Tuesday 14 August 2012

गम- औ - खुशी



गम

आंसू, आहें,तड़पन, उलझन 
गम नहीं, इज़हार-ए-गम हैं.
वर्ना गम तो वो है 
जो मानिंद-ए-नासूर 
भीतर ही भीतर  रिसता है
इस ज्वालामुखी का लावा तो
पिघल, रगों  में ही बह उठता है 

खुशी

फकत होंठो पे ही नहीं खिलती 
ये तो हर गुन्चे को महकती है 
खुशी तो वो है जो खुदा का नूर बन 
जहाँ को रौशन बनाती है 
जब छिड़क देती है रंग अपने 
फलक पे इन्द्रधनुष यही सजाती है.

Saturday 11 August 2012

बहुत बोलते हैं ये लब


माना
बहुत बोलते हैं ये लब
लफ्ज़-ब-लफ्ज़
कभी
राज-ए-दिल भी खोलते हैं
ये लब
पर
ज़रूरी तो नहीं
हर बार बयाँ कर पायें लब
लिख पाए कलम
फ़साना-ए-जिंदगी

कितने वाकयात, कितने ख्यालात
गुज़र जाते हैं
सीधे दिल से
थरथराते रह जाते हैं लब
खामोश रह जाती कलम

कहानी कहाँ हर बार
कागज़ पे उतर
जज़्बात
नक्श-ब-नक्श
उकेर पाती है

न जाने कितनी ही बार
आरजू
सीने में दफ़न
पल पल घुटती
दम तोड़ जाती हैं 

Friday 10 August 2012

कृष्णमय

कृष्णमय

हर रंग लगे
बेरंग
बस
श्याम रंग में रंग
हरेक रंग को
भूल जाना चाहती आज
हो जाना चाहती
कृष्णमय





Sunday 22 July 2012

जी


जब ज़रा जिंदगी  से,  घबरा-सा जाए है जी
जहमत मरने की  भी न, उठाना चाहे है जी 


कहता है जान-ए-बबाल है जीना, जिंदगी है जंग 
जिंदा रहने की जुस्तज़ू में, जान दिए जाए है जी.


जी जाएँ दो घड़ी जो जरा, जी भर तुझे देख लें 
 रू-ब-रू देख तुझे, हलक में आ अटक जाए है जी 


जब-जब तेरा जलवा नुमाया हो, कि जुनूं में
इक-इक अदा पे तेरी, सौ बार, मरे जाए जी 


हर रोज का वही रोना, वही फ़साना औ वही हम,
अपने से ही कुछ अलग,  हमें देखना चाहे है जी 


हज़ार जज़्बे हैं जी में, जंजाल सौ ज़माने के 
खुद के ही जाल में , मकड़ी सा फँसता जाए है जी 


वैसे तो जिस्म  और जिस्म की  ज़रूरतों से बंधा है
पोशीदगी ज़माने से चाहे , फ़कीर दिखना चाहे है जी.


सौ जन्नतों  औ दो जहाँ की निअमत निसार दूं 
तू समझा दे जो इक बार तो ज़रा , संभल सा जाए ये जी 



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