Friday 25 September 2020

इमरोज़ और साहिर से परे अमृता

 

इमरोज़ और साहिर से परे अमृता



आज से 100 साल पहले ऊपरवाले ने  इसी दिन जब अमृता के रूप एक नज़्म को जमीन पर उतारा तो मानो अदब की ज़मीन की कोख़ में एक ऐसा बीज बोया जिसकी फ़सल से आज भी अदब की ज़मीन सरसब्ज़ है|

आज अमृता को उनके जन्मदिन पर याद करते हुए इमरोज़ और साहिर से परे अमृता की शख्सियत के कुछ पहलुओं को देखने की कोशिश करते हैं| साहिर के लिए अमृता और अमृता के लिए इमरोज़ का इश्क़ जगजाहिर है| इश्क़ की इस कशिश ने बिलाशुबह अमृता के लफ़्ज़ों में जो दर्द और तड़प पैदा की उसे दरकिनार नहीं किया जा सकता| पर अमृता केवल साहिर के बुझाई गई अधजली सिगरटों को उँगलियों में लेकर साहिर की छुअन को ही महसूस नहीं करती वह अनचाहे रिश्तों में बंधी नारी-मन के भीतर सुलगती आग को अपनी आवाज़ देती है|   उनकी उंगलियाँ केवल इमरोज़ की पीठ पर साहिर का नाम ही नहीं उकेरतीं बल्कि एक औरत के शरीर पर अनचाही छुअन से उसके मन में उपजे लिजलिजे अहसास को भी उसी शिद्दत के साथ उकेरती हैं|  अमृता की आवाज़ केवल इश्क़ की ही आवाज़ नहीं, उनकी आवाज़ स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर नारी मन के विचारों को एक नए फ़लक पर प्रस्तुत करती है|

विभाजन  के दंश को झेलने वाली अमृता ने उन हज़ारों लाखों औरतों बच्चियों की तकलीफों को मानों अपने दिल के लहू से कागज़ पर उतरा है| वे औरतें जिनका बलात्कार हुआ, जिनके बच्चों को उनकी आँखों के आगे क़त्ल कर दिया गया| तब लाहौर से भारत आते हुए एक कागज़ के पुरज़े पर उस दर्द को लिखते हुए अमृता “'अज्ज आखां वारिस शाह नूँ' हीर की पीड़ा को लिखने वाले वारिस शाह से पूछती हैं आज जब इतनी हीरें रो रही हैं तो तुम अपनी कब्र से उठ कर कुछ क्यों नहीं कहते” अमृता की यह कविता आज भी वारिस शाह की मज़ार पर गाई जाती है|

चाहे पिंजर की पूरो की पीड़ा हो जिसे विभाजन के दौरान हुए दंगों में अगवा करके उससे निकाह कर लिया जाता है| पूरो को जबरदस्ती की शादी से हुए गर्भ को अनचाहे ही ढोना पड़ता है| पूरो जब अपनी ही जैसी एक लड़की को उसके अपनों तक पहुँचा देती है तब उसे लगता है कि मानो उसका जीवन सफल हुआ| चाहे प्यार के लिए किसी शर्त को बंधन मानने वाली कादंबरी, जो बिना शर्त प्यार करती है पर  प्यार के लिए शर्त रखने वाले से खुद किनारा करने की हिम्मत भी रखती है| अमृता के उपन्यास ‘धरती, सागर ते सीपियाँ’ की इस किरदार को ‘कादंबरी’ नाम से सत्तर के दशक में बनी फिल्म में शबाना आज़मी ने बखूबी निभाया|

“दुखांत यह नहीं होता कि ज़िंदगी की लंबी डगर पर समाज के बंधन अपने कांटे बिखेरते रहें और आपके पैरों से सारी उम्र लहू बहता रहे .......दुखांत यह होता है कि आप लहू-लुहान पैरों से एक उस जगह पर खड़े हो जाएं, जिसके आगे कोई रास्ता आपको बुलावा न दे|” – अमृता के ये शब्द उनके उदासियों से भरे जीवन में भी उनकी जिजीविषा और हिम्मत के परिचायक हैं| छोटी से उम्र में माँ की मौत, एक असफल शादी, साहिर से असफल प्रेम सम्बन्ध और फिर इमरोज़ के इश्क़ का पड़ाव .... जीवन के  अनेक अँधेरे-उजले गलियारों से गुज़रते हुए अमृता हारी नहीं|

घर की चारदीवारी में खुद को कैद किए औरतों के लिए अपने ख्वाब, निराश वृद्धों के लिए अपने ठहाके, सीमा पर शहीद हुए सैनिक की बेवा के लिए अपने रंग, शायरों के लिए अपने आँसू, बेटी को पढने के लिए जिस्म बेचने वाली वेश्या के लिए अपना मान, और युवाओं को अपना आक्रोश -  ऐसी वसीयत सिर्फ अमृता ही कर सकती हैं –

अपने पूरे होश-ओ-हवास में
लिख रही हूँ आज
मैं वसीयत अपनी

मेरे मरने के बाद
खंगालना मेरा कमरा
टटोलना, हर एक चीज़
घर भर में, बिन ताले के
मेरा सामान.. बिखरा पड़ा है

दे देना... मेरे खवाब
उन तमाम.. स्त्रियों को
जो किचेन से बेडरूम
तक सिमट गयी.. अपनी दुनिया में
गुम गयी हैं
वे भूल चुकी हैं सालों पहले
खवाब देखना !

बाँट देना.. मेरे ठहाके
वृद्धाश्रम के.. उन बूढों में
जिनके बच्चे
अमरीका के जगमगाते शहरों में
लापता हो गए हैं !

टेबल पर.. मेरे देखना
कुछ रंग पड़े होंगे
इस रंग से ..रंग देना उस बेवा की साड़ी
जिसके आदमी के खून से
बोर्डर रंगा हुआ है
तिरंगे में लिपटकर
वो कल शाम सो गया है !

आंसू मेरे दे देना
तमाम शायरों को
हर बूँद से
होगी ग़ज़ल पैदा
मेरा वादा है !

मेरा मान , मेरी आबरु
उस वैश्या के नाम है
बेचती है जिस्म जो
बेटी को पढ़ाने के लिए

इस देश के एक-एक युवक को
पकड़ के
लगा देना इंजेक्शन
मेरे आक्रोश का
पड़ेगी इसकी ज़रुरत
.
क्रांति के दिन उन्हें !

दीवानगी मेरी
हिस्से में है
उस सूफी के
निकला है जो
सब छोड़कर
खुदा की तलाश में !

बस !
बाक़ी बची
मेरी ईर्ष्या
मेरा लालच
मेरा क्रोध
मेरा झूठ
मेरा स्वार्थ
तो
ऐसा करना
उन्हें मेरे संग ही जला देना...!!!

 

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