Thursday, 19 September 2024

अब चक्र सुदर्शन उठाओ ना।


 बहुत सुना दी मुरली धुन मीठी ,

अब चक्र सुदर्शन उठाओ ना।
मोहित-मोहक रूप दिखा कर,
मोह चुके मनमोहन मन को,
अधर्म मिटाने इस धरती से ,
धर्म सनातन की रक्षा हित,
फिर रूप विराट दिखाओ ना ।
फिर रण-क्षेत्र में भ्रमित पार्थ है,
बंधु जिनको समझा व्याल हैं,
फिर अस्त्र त्याग कर , हाथ जोड़
अर्जुन क्लीव सम करता विलाप है,
आँखों पर आच्छादित भ्रम,
कर बैठा गांडीव त्याग है।
फिर गीता उपदेश सुनाकर,
पांचजन्य उद्घोष से केशव,
सुप्त चेतना जगाओ ना।
भक्ति कायरता न बन जाए,
शत्रु की ताक़त न बन पाए ,
अस्त्र-शस्त्र से मोह भंग
शस्त्र न दुश्मन का बन जाए,
भ्रम-मोह-विलास-कायरता,
पाश अकर्मण्यता बँधी चेतना,
सुप्त सनातन की शक्ति को
फिर झकझोर उठाओ ना
कुरुक्षेत्र सज्जित है फिर से
रणभेरी विपुल बजाओ ना
अपनी शक्ति, सामर्थ्य, समझ का
कुछ अंश युवाओं को देकर,
बाहों में शक्ति अतुल्य,
बुद्धि- विचार-विवेक बल देकर
धर्म-रक्षा , अधर्म-नाश हित,
फिर पार्थ समान बनाओ ना ।
बहुत सुना दी मुरली धुन मीठी
अब चक्र सुदर्शन उठाओ ना।
~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

कौन -सा पथ मैं चुनूँ

 


कौन -सा पथ मैं चुनूँ
है कुहासा हर तरफ़, हर राह है बाधा भरी,
कुछ दूरी पर हर ओर ही, दीवार-सी मानो खड़ी |
साफ़ जब मंजिल नहीं तो, किस तरफ आगे बढूँ ?
कौन-सा पथ मैं चुनूँ?

मेरे होने का यहाँ, कारण कोई बतलाए तो ,
अस्तित्व को मेरे कोई, अभिप्राय तो मिल जाए जो,
उत्तर मेरे इन प्रश्नों के, प्राप्त जिससे कर सकूँ
कौन-सा पथ मैं चुनूँ?

गतिहीनता बेड़ी बनी, पाँव है मेरे पड़ी,
द्वंद्व का है शोर मन में, संशय में प्रज्ञा जड़ी|
थाम लो उँगली प्रभु, भव-सिन्धु से मैं भी तरूँ,
तेरी ओर लेकर जाए जो, बस वही पथ मैं चुनूँ |
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

स्वीकार्यता !

 स्वीकार्यता !



आजकल
थम – सी गई गई है … लड़ाई
दिल और दिमाग के बीच|
क्या हो गया है .... समझौता?
या शायद बढ़ गई है …….
परिस्थितियों के प्रति .... स्वीकार्यता !
दोनों के मध्य,
अब नहीं होती बहस,
सहन कर लेता है सब,
अंतर्मन ..... बिना किए कोई प्रश्न|
न कोई तर्क, न वितर्क,
न कोई जद्दोजहद -
खुद को साबित करने की सही,
या किसी और को गलत,
मिट रही है ज़िद|
क्या कहा जाए इसे
निर्वात या निर्द्वंद्व
यह है विरक्ति
या आसक्तियों का शमन|
नहीं कुछ भी ऐसा अब
जिसकी लगे अनिवार्यता ..
जो है, जैसा है
अब उसके प्रति ... स्वीकार्यता !
~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

बातों के झरोखों से ..


बातों के झरोखे
बंद नहीं होने चाहिए
रिश्तों के मकानों में .... कभी-भी |
रिश्तों के बीच,
खड़ी होती दीवारों,
बंद होते दरवाज़ों में,
बनीं रहें ये दरारें |
आते रहें झोंके,
धीमी-धीमी सदाएँ,
कुछ शिकायतों की फुसफुसाहटें,
कुछ गिला, थोड़े शिक़वे |
पहचान है यही,
कि रिश्ता अभी मरा नहीं |
कि अभी उधर है कोई,
जो नाराज़ हो भले ही ,
पर अब भी करता है फ़िक्र,
रखता है उम्मीदें अब भी |
तुम्हारी एक आवाज़ पर
दिल धड़क जाता है उसका ... अब भी |
बातों के ये वातायन ही,
करते है संचारित .....
प्राण-वायु |
जीवित रह पाते हैं जिससे,
रिश्ते !
बनी रहती हैं संभावनाएँ
पुनः जुड़ाव की
इन्हीं
बातों के झरोखों से .. 
~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी 

 

बेमुकम्मल


बहुत जरूरी हैं ....
कुछ बेतरतीबियाँ,
थोडा बिखराव, थोडा बेशऊरापन भी|
थोडा बेमुकम्मल होना,
बने रहने देता है हमें ... इंसान|
इंसान ... जिसमें सुधार की है थोड़ी गुंजाइश,
इंसान ... जो मुक़म्मल होने के लिए करता आज़माइश,
इंसान ... जो अभी नहीं बना है देवता,
इंसान ... जिसमें नहीं है प्रतिमाओं से सुघढ़ता |
अपनी हर ग़लती के बाद पछताना,
फिर सुधरने के लिए कुछ और ज़ोर लगाना,
कभी अपने बिखराव में ही सिमट जाना,
कभी सब कुछ समेटने की चाहत में बिखर जाना|
यही अधूरापन,
यही पूरा होने की जद्दोजहद,
नहीं होने देती ऊसर,
बनाए रखती है नमी,
जिलाए रखती है आस ....
नई कोंपले फूटने की ... 
बंजर ज़मीन पर
~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी 

 

विशिष्ट स्त्रियाँ

 

एक सामान्य
समाज द्वारा स्वीकृत
सभ्य स्त्री बनने के लिए
एक औरत को छोड़ देनी पड़ती हैं
अपनी समस्त विशिष्ट इच्छाएँ|
वे सभी कामनाएँ जो
समाज द्वारा स्वीकृत,
सर्वमान्य ढाँचे में फिट नहीं होतीं|
करनी पड़ती है उनमें काट-छाँट,
थोड़ी नहीं, बहुत-सी...
क़तर-ब्यौत के बाद ही वह
समा पाती है,
लोगों की आँखों-विचारों- मान्यताओं में बसे
उस नारी स्वरूप के साँचे में|
एक आम इंसान की इच्छाओं से युक्त नारी,
जब, ज़रा भी उस साँचे से बाहर
झाँकती-निकलती
दिख जाती है
बस उसी समय लग जाता है उस पर ठप्पा
सामाजिक अस्वीकृति का ....
स्वीकार नहीं करता समाज
असाधारण स्त्रियाँ ..क्योंकि .......
.... उनके पास पंख होते हैं

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किन भावों का वरण करूँ मैं ?

 हर पल घटते नए घटनाक्रम में,

ऊबड़-खाबड़ में, कभी समतल में,

उथल-पुथल और उहापोह में,
किन भावों का वरण करूँ मैं ?
एक भाव रहता नहीं टिककर,
कुछ नया घटित फिर हो जाता|
जब तक उसको मैं सोचने बैठूँ,
किसी और दिशा कुछ ले जाता|
क्या-कुछ-कब-कैसे-कितना के ,
चक्कर में कब तक भमण करूँ मैं?
किन भावों का वरण करूँ मैं?
विद्रूप-विकट कुछ घट जब मन में,
विद्रोह-विषाद-विरक्ति लाता |
सब तहस-नहस कर नव रचना को,
हो अधीर मन है अकुलाता|
कर चिंतन एक नई आस का,
नैराश्य-त्रास का क्षरण करूँ मैं|
किन भावों का वरण करूँ मैं?
कुछ मेरे अंतस के सपने,
सपनों में धूमिल होते अपने|
अपनों को चुनना या सपने बुनना,
किसको पाने में छूटे कितने |
हानि-लाभ क्या गणन करूँ मैं ?
किन भावों का वरण करूँ मैं?
~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

सरस्वती (दूसरे पक्ष का पक्ष)

 सरस्वती (दूसरे पक्ष का पक्ष)

~~~~~~~~
स्त्री ने पुरुष से कहा-
‘तुमने ही दिया है मुझे
.....सारा दर्द-सारी पीड़ा’|
फिर उसने खोली,
अपने आरोपों की पोटली,
और एक-एक कर गिनवाए,
वे सभी ज़ख्म,
जो दिए थे पुरुष ने उसे ... कभी |
उन आरोपों की झड़ी और
स्त्री आँखों से बहती गंगा-जमुना में,
भीगा पुरुष ... अपराधबोध से ग्रसित,
सिर झुका सुनता रहा ... बहुत देर तक,
चुपचाप .... अपनी पीड़ा को समेटे|
पर .... उसके पास भी थे अपने दर्द,
कुछ अनकही शिकायतें,
कुछ बहुत पुराने ज़ख्म ...
उसके अंतस में बह रही थी,
दर्द की एक नदी .... जो,
आँखों से बह निकलने को,
उफनी, मचली, बार-बार टकराई ...
उस उपरी चट्टानी परत से,
जिसे रचा था पुरुष ने ही,
अपने चारों ओर..... पर,
न तोड़ पाई वह ... आँखों पर बँधे बाँध |
और फिर एक बार,
पुरुष का दर्द ....
बन गया उसकी चिल्लाहट,
जो दुनिया ने सुनी |
फिर नज़र नहीं आई किसी को
स्त्री की आँखों से बहती,
गंगा-जमुना की बाढ़ के आगे,
पुरुष अंतस में,
अदृश्य हो बह रही ...
सरस्वती !!
~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
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