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Saturday, 28 September 2013

सावन संग होड़ (कुण्डलिया)

कुण्डलिया 
सावन संग आज लगी, सखी नैन की होड़|
मान हार कौन अपनी, देत बरसना छोड़||
देत बरसना छोड़, नैन परनार बहे हैं |
कंचुकि पट भी भीज , विरह की गाथ कहे हैं ||
पड़े विरह की धूप, जले है विरहन का मन|
हिय से उठे उसाँस, बरसे नैन से सावन ||

Sunday, 15 September 2013

राजनीति ( कुण्डलिया छंद)



राजनीति में चल रहा, लाशों का है खेल |
धूर्त मिले हैं धूर्त से, गिद्धों का है मेल ||
गिद्धों का है मेल,  धर्म की आँच जलाएँ|
पाने सत्ता का लाभ, देश को हैं सुलगाएँ||
लालच का तूफान, फैली हर ओर अनीति |
लोभियों  की जमात, बनी है ये राजनीति ||

Wednesday, 11 September 2013

नारी ( कुण्डलिया छंद)


नारी धुरी समाज की, जीवन का आधार|
बिन नारी जीवन नाव, डूबे रे मंझधार ||
डूबे रे मंझधार, यह गुरु प्रथम बालक की |
संस्कार की दात्री, पोषक है आदर्श की ||
नारी का अपमान, पुरुष की गलती भारी|
मानवता का बीज, सींचे कोख में नारी ||

शब्द तेरे ...


हर शब्द तेरा 
मन ही मन मैं 
गुनती रही 
बार-बार दोहरा के उसे 
खुद ही सुनती रही 
मुँह में उसे घुमाती रही 
कुछ खट्टी मीठी गोली की तरह
घुल-सी गई मिठास 
अंतस में मेरे .....
तेरा कहा हर शब्द 
कभी  साकार बन 
तैरता रहा आँखों के आगे 
नदी की लहर पर 
डूबता- उतरता रहा 
कभी पंख-सा उड़ता रहा 
हवा के परों पर 
हर बार नया रूप धर 
सामने आ खड़ा हुआ 
भरमाने को मुझे 
........ हाँ ..... 
बस यही तो किया अब तक 
शब्दों ने तेरे 
कैसा मोहक जाल फैलाया 
भ्रमित कर मुझे 
बेतरह उलझाया 
तृषित चातक की प्यास बन
मरुस्थल में जल दिखला 
मृग सा मुझे अपने पीछे 
दौड़ाता ही रहा है 
हर शब्द तेरा  



Saturday, 7 September 2013

एक मुट्ठी आसमान

लो फिर 
समेट लिया मैंने 
अपना आसमान
अभी कल ही तो खोली थी 
अपनी मुट्ठी मैंने 
और फैला दिया था 
दूर-दूर तक 
ताने थे सुन्दर वितान 
कुछ ख्वाहिशों के रंग से 
रंग डाला था इन्द्रधनुष 
कुछ उम्मीदों की चमक से 
चमकाया सूरज का आतिशदान 
नन्हीं-नन्हीं हसरतों के सितारे टाँके 
झिलमिला उठा मेरा आकाश 
पर न क्यूँ तुम्हें 
न भाए ... 
ये रंग, ये चमक, ये झिलमिलाहट 
बुझा कर फिर हसरतों के दिए 
बेबसी की काली चादर ढाँप
जब्त कर ली सब रंगीनियाँ फिर 
फ़र्ज़ के अंधेरों में करके गर्त उन्हें फिर 
अपनी मुट्ठी में 
लो फिर 
समेट लिया मैंने अपना आसमान