Pages

Sunday, 22 July 2012

जी


जब ज़रा जिंदगी  से,  घबरा-सा जाए है जी
जहमत मरने की  भी न, उठाना चाहे है जी 


कहता है जान-ए-बबाल है जीना, जिंदगी है जंग 
जिंदा रहने की जुस्तज़ू में, जान दिए जाए है जी.


जी जाएँ दो घड़ी जो जरा, जी भर तुझे देख लें 
 रू-ब-रू देख तुझे, हलक में आ अटक जाए है जी 


जब-जब तेरा जलवा नुमाया हो, कि जुनूं में
इक-इक अदा पे तेरी, सौ बार, मरे जाए जी 


हर रोज का वही रोना, वही फ़साना औ वही हम,
अपने से ही कुछ अलग,  हमें देखना चाहे है जी 


हज़ार जज़्बे हैं जी में, जंजाल सौ ज़माने के 
खुद के ही जाल में , मकड़ी सा फँसता जाए है जी 


वैसे तो जिस्म  और जिस्म की  ज़रूरतों से बंधा है
पोशीदगी ज़माने से चाहे , फ़कीर दिखना चाहे है जी.


सौ जन्नतों  औ दो जहाँ की निअमत निसार दूं 
तू समझा दे जो इक बार तो ज़रा , संभल सा जाए ये जी 



Saturday, 7 July 2012

अनसुलझी उलझन

नामालूम क्यों
उलझते से जा रहें हैं 
जीवन के सिरे
एक-दूसरे में गुंथ
हज़ार गांठे लगाते
और मैं 
बड़े सब्र से
एक-एक गांठ को सुलझाती
खुद को यकीन दिलाती
कि हाँ
अब सब कुछ ठीक है 
शायद अब हर उलझन 
सुलझ गई है


तभी न जाने कहाँ से
कुछ और सिरे
सिर उठाते
बेतरह गुंथ जाते
छोड़ जाते 
हर बार
एक अनसुलझी 
उलझन........

Friday, 6 July 2012

अजनबी



कोई तो मिले 
अजनबी
देख जिसे, उपजे  जिज्ञासा 
विस्फारित हों नैन
नए प्रश्न कुलबुलाएँ 
सर उठायें मन में 
बात-मुलाकात करने को
उत्सुक हो मन 


अजनबी देश के, अजनबी लोगों के 
अनगिनत किस्सों में
दूर तक साथ साथ चलते
बस बीतातें जाएँ 
दिन - रैन 


न बेकार के शिकवे
न बेवज़ह शिकायतें 
न परिचय की अड़चन
न रिश्तों  के बंधन 

दोस्ती-दुश्मनी, जान-पहचान से परे
खुशबू की तरह 
जन्मे, बिकसे, पोषित हो 
अनजानापन 



जो कुछ दिल कहना चाहे
बिन सकुचाए
निर्द्वन्द्व, खोल कर रख दें  
अंतस............



Monday, 2 July 2012

तन्हाई


आज
न जाने कितने दिन बाद
खुद अपने साथ
अकेली हूँ मैं

कितने ही चेहरों-आवाजों,
किस्सों- कहानियों,
शिकवों शिकायतों,
हँसी-ठहाकों के बीच
खुद से मुलाकात ही
कहाँ हो पायी थी

कितना कुछ था कहने को,
बताने को , बतियाने को
पर इस जमघट में
कहाँ  सुनोगी तुम अब मेरी
बस यही सोच,  
झिझक में
दूर खड़ी
करती रही इंतज़ार
इस चिरपरिचित
तन्हाई का
जब सिर्फ मैं ही
अपने साथ में हूँ ........