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Sunday, 22 July 2012

जी


जब ज़रा जिंदगी  से,  घबरा-सा जाए है जी
जहमत मरने की  भी न, उठाना चाहे है जी 


कहता है जान-ए-बबाल है जीना, जिंदगी है जंग 
जिंदा रहने की जुस्तज़ू में, जान दिए जाए है जी.


जी जाएँ दो घड़ी जो जरा, जी भर तुझे देख लें 
 रू-ब-रू देख तुझे, हलक में आ अटक जाए है जी 


जब-जब तेरा जलवा नुमाया हो, कि जुनूं में
इक-इक अदा पे तेरी, सौ बार, मरे जाए जी 


हर रोज का वही रोना, वही फ़साना औ वही हम,
अपने से ही कुछ अलग,  हमें देखना चाहे है जी 


हज़ार जज़्बे हैं जी में, जंजाल सौ ज़माने के 
खुद के ही जाल में , मकड़ी सा फँसता जाए है जी 


वैसे तो जिस्म  और जिस्म की  ज़रूरतों से बंधा है
पोशीदगी ज़माने से चाहे , फ़कीर दिखना चाहे है जी.


सौ जन्नतों  औ दो जहाँ की निअमत निसार दूं 
तू समझा दे जो इक बार तो ज़रा , संभल सा जाए ये जी 



16 comments:

  1. जी का जंजाल है ये जी.....

    :-)

    बहुत प्यारी रचना शालिनी जी

    अनु

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    1. hardik dhanyvaad anu ji..... bas thodi der se kiya hai... iske liye sorry!

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  2. Replies
    1. धन्यवाद धीरेन्द्र जी!

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  3. हज़ार जज़्बे हैं जी में, जंजाल सौ ज़माने के
    खुद के ही जाल में , मकड़ी सा फँसता जाए है जी

    यही जी का जंजाल बन जाता है ...सुंदर अभिव्यक्ति

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    1. हार्दिक आभार संगीता जी!

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  4. वाह .. क्या बात है ... जिंदगी से जुडी बातें हैं इन शेरों में ..

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  5. जी खुश हो गया जी :-)

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    1. आपको पसंद आया... हमारी खुशकिस्मती!

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  6. बहुत बढ़िया मैम!


    सादर

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  7. हज़ार जज़्बे हैं जी में, जंजाल सौ ज़माने के
    खुद के ही जाल में , मकड़ी सा फँसता जाए है जी

    जिंदगी के जंजालों का बढ़िया लेखाजोखा.

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    1. बहुत सुन्दर और सार्थक सृजन , बधाई.

      कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" पर भी पधारें, प्रतीक्षा है आपकी .

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    2. धन्यवाद रचना जी एवं शुक्ल जी!

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  8. हज़ार जज़्बे हैं जी में, जंजाल सौ ज़माने के
    खुद के ही जाल में , मकड़ी सा फँसता जाए है जी


    वैसे तो जिस्म और जिस्म की ज़रूरतों से बंधा है
    पोशीदगी ज़माने से चाहे , फ़कीर दिखना चाहे है जी.




    bahut achchhi prastuti hr sher lakbab lage ...mai to sirf itana kahana chahuga इस जहाँ में आग को भी फख्र हो जाता है तब.|
    हस के परवाना कोई बेफिक्र होजलता है जब||
    ये शहर है आशिको का सोच के चलना जरा |
    शोलो की दहशत से देखो वो भला डरता है कब

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    1. बहुत खूबसूरत शेर लिखा है नवीन जी.... वाह!

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