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Saturday, 7 July 2012

अनसुलझी उलझन

नामालूम क्यों
उलझते से जा रहें हैं 
जीवन के सिरे
एक-दूसरे में गुंथ
हज़ार गांठे लगाते
और मैं 
बड़े सब्र से
एक-एक गांठ को सुलझाती
खुद को यकीन दिलाती
कि हाँ
अब सब कुछ ठीक है 
शायद अब हर उलझन 
सुलझ गई है


तभी न जाने कहाँ से
कुछ और सिरे
सिर उठाते
बेतरह गुंथ जाते
छोड़ जाते 
हर बार
एक अनसुलझी 
उलझन........

7 comments:

  1. प्रशसनीय.... मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है। धन्यवाद।

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  2. यही तो जीवन है....
    एक को मनाओ तो,दूजा रूठ जाता है......

    सुन्दर भाव

    अनु

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  3. यही होता है हम जीवन भर सुलझाने में लगे रहते हैं और जिंदगी और उलझती चली जाती है.....बहुत खूबसूरत पोस्ट।

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  4. हम ऐसे ही इसे सुलझाने की कोशिश में लगे रहते हैं और जिंदगी यूँ ही उलझती चली जाती है.....बहुत ही सुन्दर पोस्ट।

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  5. jaane kab suljhengi uljhane...

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  6. इन उलझनों को सुलझाते सुलझाते ज़िंदगी तमाम हो जाती है

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  7. इसी का नाम जीवन है ... एक सुलझती है तो दूसरी उलझ जाती है ... जीवन ऐसे ही बीत जाता है ...

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