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Wednesday, 21 March 2018

प्रारब्ध

प्रारब्ध (लघुकथा)
"तुमसे तो हमारी कोई खुशी बरदाश्त नहीं होती, जब भी ज़रा खुश देखती हो तो कोई न कोई बखेड़ा खड़ा कर देती हो" बेटे के शब्द पिघले शीशे की तरह शांतिदेवी के कानों से होते हुए दिल में उतर रहे थे। कहने को तो बहू के लफ्ज़ बेटे से ज़्यादा तल्ख़ थे पर घाव बेटे के लफ़्ज़ों ने ज्यादा गहरे दिए। दिल में फफोले से भर गए और पीड़ा से आँखें छलक आईं। "अब फिर टी. वी. सीरियल की तरह नाटक शुरू" बड़बड़ाता हुआ बेटा गुस्से से बाहर निकल गया। सामने बैठे पोता-पोती सारे वाकये को सहमी-सहमी नज़रों से देख रहे थे। शांतिदेवी की डबडबाई आँखों में करीब 30-32 साल पहले का दृश्य घूम गया ...  कुछ ऐसा ही तो था बस फ़र्क इतना था कि किरदारों की भूमिकाएं बदली हुई थीं ... शांतिदेवी की जगह उनकी सास थी और बहू की जगह वह स्वयं थी और सारे झगड़े के चश्मदीद गवाह बन रहे पोता-पोती की जगह उनका यही बेटा जो अभी-अभी उन्हें कितनी ही जली-कटी सुना गया था।
सब कुछ वैसा ही है .... आज फिर कोमल मन में पारिवारिक मूल्यों की जगह विष बीज रोपित किए जा रहे हैं। इतिहास स्वयं को ही दोहरा रहा है पर साथ ही आने वाले कल की पटकथा भी लिखी जा रही है .... आज फिर भविष्य का प्रारब्ध लिखा जा रहा है ....
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शालिनी रस्तौगी

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