Pages

Monday, 19 March 2018

क़रीब आती है खुद मंजिल, इरादों को देख के

एक ग़ज़ल
~~~~~~~
तरसता दूर से है वो बस गुलाबों को देख के
जो दिल में खौफ खाए तीखे खारों को देख के

छिपा पाओगे कैसे राज-ए-दिल हमसे भला ,
कि मजमून भाँप लेते हैं लिफाफों को देख के

भँवर है किस जगह औ कितनी है गहराई यहाँ
पता चलता नहीं अक्सर किनारों को देख के .

कलाई में लचक तो पाँव में मेंहदी का कभी
यूँ शब-ए-वस्ल लौटे इन बहानों को देख के

करें बेपर्दगी की इल्तेजा अब क्यों हुस्न से
मचल जाए आशिक का दिल हिजाबों को देख के

छलावों से तेरे वादे यूँ भरमाते ही रहे
बुझे कब प्यास सहरा में सराबों को देख के .

जो दूर मंजिल,सफ़र मुश्किल, समय भी रूठे तो क्या ,
क़रीब आती  है  खुद  मंजिल, इरादों  को  देख  के

No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी मेरे लिए अनमोल है.अगर आपको ये पोस्ट पसंद आई ,तो अपनी कीमती राय कमेन्ट बॉक्स में जरुर दें.आपके मशवरों से मुझे बेहतर से बेहतर लिखने का हौंसला मिलता है.