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Sunday, 17 July 2016

हास करे, परिहास करे

सवैया 


हास करे, परिहास करे मन की गति वो समझे नहिं मेरी।

आय, सताय,रुलाय,मनाय,करे मन की सुनता नहिं बैरी।

लाज भरी इनकार करूँ झट बात बना करके मति फेरी।

लेकर सौं इक बात कहूँ अब बात न मानु कभी पिय तेरी।।

Saturday, 2 April 2016

फागुन के रंगों में रंगी दो कुण्डलियाँ

फागुन के रंगों में रंगी दो कुण्डलियाँ
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वियोग का रंग
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धरती फागुन में सजी, जोगन जी संताप।
विरहा अगनी तन जले, उड़े बूँद बन भाप।।
उड़े बूँद बन भाप, सखी की हँसी ठिठोली।
करे जिया पर चोट, धँसे जी में बन गोली।।
साजन-सजनी संग, आँख विरहन की भरती।
पड़ती रंग फुहार, रहूँ मैं धीरज धरती ।।
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संयोग का रंग
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बनठन कैसी सज गई, खिला धरा सुरचाप।
रंग फुहारें तन पड़ीं, मिटा हिया का ताप ।।
मिटा हिया का ताप, कि खेली उन संग होली।
भीज गए सब अंग, खिला मन बन रंगोली।।
मन ही मन में राग, दिखाए झूठी अनबन ।
पिया मिले जब संग, फाग मैं खेलूँ बनठन ।।
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शालिनी रस्तौगी

Thursday, 31 March 2016

जीवन का डर

बार-बार चुभ रही है 
आँखों में 
उसकी खाली सीट 
उठ रहे हैं मन में कई सवाल |
क्या हुआ होगा ? 
किस वज़ह से उठाया होगा 
उसने यह कदम?
ऐसा कौन सा डर था जिससे डर कर उसने
जीवन के सबसे बड़े डर
मृत्यु को
किया होगा अंगीकार?
क्या वास्तव में
मौत से भी भयंकर है 
जीवन का डर?
यही बात चुभ रही मन में बार- बार
क्यों नहीं किया हौंसला
अनुत्तीर्ण होने का? 
सिर्फ एक परीक्षा के लिए
क्यों हार गया वह जीवन ?
कोई भी आकांक्षा 
माँ-बाप की अपेक्षा 
बढ़कर तो नहीं थी जीवन से उसके!
क्यों नहीं समझ पाया वह
उनकी आँखों का कोई भी स्वप्न
इस दुस्वप्न पर तो नहीं टूटता था|
अभी तो बस आरम्भ ही था - जीवन रण का
क्यों युद्ध से पहले ही उसने
डाल दिए हथियार
यही सोचता मन बार-बार.....

नहीं बन पाती शिला

नहीं बन पाती शिला
पूरी तरह
कोई अहिल्या कभी
उस पाषाणी आवरण के नीचे
हमेशा छलकता रहता है
मीठे जल का एक सोता
गाहे-बगाहे जिसमें
उग आते हैं कभी
इच्छाओं के कमल।
समझ नहीं पाती
हर झरोखे, हर झिरी को
बड़े यत्न से मूँदने के बाद भी
जाने कहाँ से
प्रवेश कर जाती है 
उम्मीद की किरण 
जो बार-बार खिला देती है 
कामना का कमल 
हाँ! कोई अहिल्या 
पूरी तरह 
नहीं बन पाती शिला
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शालिनी रस्तौगी

अश्वत्थामा

अश्वत्थामा बन गई है वो,
अपने पकते-रिसते घाव को
अंतरात्मा पर ढोती,
मूक पीड़ा को पीती|
शुष्क आँसुओं के कतरों की 
चुभन आँखों में लिए
फिर रही है|
हाँ, अश्वत्थामा बन गई है वो ....

भेद जाती हैं कान
अंतस से उठती आवाजें
अपने ही मन के कुरुक्षेत्र में 
अपना ही रचा महाभारत 
लड़ रही है वो
हाँ, अश्वत्थामा बन गई है वो 
पीड़ा, घुटन, रुदन का 
सदियों तक 
अभिशाप झेलना 
बन चुकी है उसकी नियति 
आखिर क्यों न हो 
परिणाम समान 
जब
पाप भी हुआ था  समान.... 
अपनी मौन, संज्ञाशून्य सहमति को 
बना ब्रह्मास्त्र 
खुद अपने ही गर्भ पर कर प्रहार 
हाँ, बन गई है वो 
अश्वत्थामा........



Tuesday, 23 February 2016

जाने किस बहकावे में

जाने किस बहकावे में आकर
उर्वरा धरती को
चढ़ी है जिद
साबित करने की खुद को ऊसर
अपनी हरियाई कोख को
पीट- पीट कर रही विलाप
अकूत सम्पदा को आँचल में छिपाए
आँखों में आँसू, होंठों पर गुहार लिए
मांगती फिर रही
अनाज के दो दाने
आक्रोश से फटी पड़ती है
कि भीतर के लावे से
सब कुछ ख़ाक कर देने को आतुर
वीर प्रसविनी आज
भक्ष रही निज पूतों को
जाने किस बहकावे में
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शालिनी रस्तौगी

त्रिवेणी


बहुत मुश्किल रहा तोड़ना दीवारें भरम की।
कितने जतन से खुद, चिना था हमने जिन्हें ।
.............
सच है कि अपनी कैद से रिहाई आसाँ नहीं होती।

2.
दिमाग का सुकूँ देके , जिस्म का आराम खरीदा है।
पैसों के एवज रूह बेच, जी का जंजाल खरीदा है
.............
जाने क्यों घाटे की तिजारत में लगी है दुनिया ?

3.
कभी झांकती हैं मन में , कभी सेंध लगाती हैं 
कहीं रहूँ मैं, हर घडी इर्द-गिर्द ही मंडराती हैं 
.......... 
जाने चोर हैं कि जासूस ... तुम्हारी आँखे

4.
यादों के कुएँ से.मशक भरने का 
रोज़गार दिमाग को दे रखा है 
..............
अजीब लम्हे हैं फुर्सत के... एक पल को खाली रहने नहीं देते

साजिश

दिशाओं ने की है साजिश
पूरब के खिलाफ़
भड़काया है बादलों को
कि मत होने दो सुबह
बहुत इतराती है ये प्राची
कि सूरज
इसके दामन से निकलता है
रोक लो रास्ता
उदित होती हर किरण का
चलो छा जाओ
कि दुनिया देख न पाए उजाला
गरजो, बरसों, बिजलियाँ गिराओ
बूँदे नहीं, धरा पर सैलाब बरसाओ
हदें तोड़ने की इजाज़त है
चाहे जहाँ तक जाओ
कि त्रस्त होगी धरती तो
पिघलेगी प्राची
शायद सफल हो जाए
सूरज को कैद करने की
दिशाओं की साजिश
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शालिनी रस्तौगी

Sunday, 3 January 2016

प्रेम हो या परमात्मा

प्रेम हो या परमात्मा
कौन तुम?
अंतर, बाह्य, चहुदिशि, चहुँओर
आच्छादित तुमसे
अस्तित्व मेरा|
संशय में हूँ
अब मुझमें कितनी
बची शेष मैं?
या आवृत कर डाला है तुमने
सम्पूर्ण मुझे
पर देखो 
कैसा ये आश्चर्य
कि इस संकुलता से
घुटते नहीं प्राण मेरे
न अकुलाते मुक्ति को|
नहीं, देखना भी चाहती नहीं
परे इस आवरण के
कैसा अनंत विस्तार 
भर दिया मेरे अंतस में !
रच दी मात्र मेरे लिए

दुनिया अलग है तुमने
सम्मोहित सी रहूँ विचरती
इसके हर कोने में
आत्मविमुग्ध
रह जाती विस्मित
पाती इतना जो था अज्ञात
क्या था मेरे ही मन में
कैसे और कब रच डाला मुझमें
ये तिलिस्म तुमने?
नहीं , कोई और तो नहीं
कर सकता चमत्कार ये| 
निश्चित ही तुम
या तो प्रेम हो या परमात्मा........
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शालिनी रस्तौगी