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Thursday, 31 March 2016

नहीं बन पाती शिला

नहीं बन पाती शिला
पूरी तरह
कोई अहिल्या कभी
उस पाषाणी आवरण के नीचे
हमेशा छलकता रहता है
मीठे जल का एक सोता
गाहे-बगाहे जिसमें
उग आते हैं कभी
इच्छाओं के कमल।
समझ नहीं पाती
हर झरोखे, हर झिरी को
बड़े यत्न से मूँदने के बाद भी
जाने कहाँ से
प्रवेश कर जाती है 
उम्मीद की किरण 
जो बार-बार खिला देती है 
कामना का कमल 
हाँ! कोई अहिल्या 
पूरी तरह 
नहीं बन पाती शिला
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

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