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Wednesday, 3 June 2015

तल्खियाँ ( gazal)


हालात अक्सर ज़ुबानों पर, तल्खियाँ रख देते हैं,
रेशमी से अहसास पर ये, चिंगारियां रख देते हैं .
मुश्किल नहीं इस कदर यूँ तो, ये बयाँ जज़्बात का
ये लफ्ज़ आ बीच में क्यों, दुश्वारियाँ रख देते हैं.
मासूमियत छीन कर ज़ालिम, दाँव ये ज़माने के
भोले भाले से चेहरों पर, अय्यारियां रख देते हैं.
इक बार फिर जी लें जी भर, बचपन का वो भोलापना.
कुछ पल को इक ओर अपनी, हुशियारियाँ रख देते हैं.
दीवार क्यों ये अना की, आए हमारे बीच में,
कुछ भूल जाओ तुम, परे हम, खुद्दरियाँ रख देते हैं. 

3 comments:

  1. खुद्दारियाँ

    बहुत सुंदर !

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  2. लफ्ज़ हमेशा एन वक्त पर धोखा दे जाते हैं ...
    लाजवाब ग़ज़ल ...

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  3. दिल से निकले जज्बात.. शालिनी जी
    बहुत दिनों बाद आना हुआ ब्लॉग पर प्रणाम स्वीकार करें

    ReplyDelete

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