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Wednesday, 15 April 2015

बेमौसम बरसात (दोहे)



धरती माँ की कोख में, पनप रही थी आस |

अग्नि बन नभ से बरसा, इंद्रदेव का त्रास ||



व्याकुल हो इक बूँद को, ताके कभी आकास|

कभी बरसते मेह से, टूटे सारी आस ||

12 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 16-4-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1948 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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    1. हार्दिक आभार दिलबाग विर्क साहब !

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  2. वाकई आस टूट गया कि‍सानों का...

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    1. सारी मेहनत पर ही पानी फिर गया ... धन्यवाद रश्मि जी

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  3. बहुत सुन्दर और सार्थक दोहे...

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    1. धन्यवाद आदरणीय कैलाश शर्मा जी

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  4. सुन्दर प्रस्तुति .पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब,
    बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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    1. आपके प्रेरणा दायक शब्दों के लिए ह्रदय से आभार व्यक्त करती हूँ .....

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  5. बहुत खूब ... इस बार तो जैसे किसानों की आस टूट ही रही है ...

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  6. बहुत.....बहुत खुबसुरत रचना
    पधारिये

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