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Tuesday, 8 April 2014

अच्छा होता है ...

अच्छा होता है 
कभी - कभी 
धारा के साथ - साथ बहना
बिना प्रतिरोध 
जो घट रहा है 
उसे वैसे ही घटने देना 
क्यों हर बार बाँध बांधे जाएँ?
क्यों हर बार धार को मोड़ा जाए?
क्यों धारा के विपरीत बहने का हमेशा
संघर्ष किया जाए ?
.... क्यों नहीं
जो घट रहा है उसे घट जाने दें,
जो बन रहा है उसे बन जाने दें
जो मिट रहा उसे मिट जाने दें
आखिर नियति को निर्धारित करने वाले
हम तो नहीं
तो क्यों किसी बात के लिए
दोष दें स्वयं को ?
क्यों औरों के लिए
रोक लें स्वयं को ?
न भूत पर वश, न भविष्य अपने हाथ
तो वर्तमान में जीना
जो हो रहा उसे होने देना
कभी कभी
अच्छा होता है ........

आह्लाद बन गाएगा फिर ..... आक्रोश

आक्रोश, पीड़ा, निराशा....
लेती है जन्म,
सर उठता अक्सर 
परिस्थितियों से जन्मा अवसाद ,
हर ओर विषमता 
सपाट, आशाविहीन चेहरे 
बातों में मायूसी
क्या वाकई ..... इतनी ख़राब हो चुकी है स्थिति?
क्या अब शेष नहीं कोई उम्मीद ?
नाउम्मीदी के गहनतम तम में,
उत्तर टटोलते
भटकते हैं जब हम ..
दूर क्षितिज पर कहीं
प्रकाश की क्षीण किरण
मन में पुनः जगाती आस
धीमे से कानों में घोलती यह विश्वास
नहीं... अभी ख़त्म नहीं हुआ सब
क्षणिक है यह अंधकार
हाँ, मैं हूँ जीवित अभी ,
तुम्हारे ही भीतर कहीं
बस बंद मत होने हो कपाट
विश्वास के... आस के .... उल्लास के
मार्ग तो दो निकासी का
अच्छाइयों को ... सच्चाईयों को
हाँ! फिर होगा परिवर्तन..
फिर बजेगी दुन्दुभी ... होगा फिर रण
निश्चित ही हारेगा यह तम
मिटेगी समूल निराशा,
ख़त्म होगी पीड़ा
आह्लाद बन गाएगा फिर ..... आक्रोश