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Monday, 4 March 2013

दुनिया की नुमाइश ....


नुमाइश है ये दुनिया, क्या यहाँ नुमाया नहीं होता .

इंसानों की बस्ती में इंसानियत का नज़ारा नहीं होता 



खूबसूरती का नकाब पहने घूमे है यहाँ  वहशत, 

सूरत से किसी की सीरत का अंदाज़ा नहीं होता .


न जाने कितने स्वांग रचाए फिरते हैं शराफत का 


तस्बीह फेरने वाला हर, पीर औ इमाम नहीं होता .


ईमान औ इल्म की यहाँ सभी दुकान सजाये बैठे हैं,


कौन समझाए कि बाजार में हर शख्स खरीदार नहीं होता.


सफ़ेद लिबासों में स्याह दिल औ ईमान छिपा रखा है

सफेदी पे स्याह दाग कभी पोशीदा नहीं होता .

16 comments:

  1. वाह वाह सुन्दर रचना | बधाई


    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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    1. धन्यवाद तुषार .... और आपके ब्लॉग पर जाना हमेशा ही होता है

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  2. बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल,सादर आभार.

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  3. बहुत खूब ...!!!

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  4. बहुत बहुत खुबसूरत और शानदार दूसरा और तीसरा शेर तो लाजवाब ।

    इसको कुछ यूँ लिखें -

    पीर-ओ-इमाम (यहाँ 'ओ' को और के सन्दर्भ में लेंगे )

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  5. सूरत से किसी की सीरत का अंदाजा नही होता,,,,
    वाह वाह !!! क्या बात कही,,,बहुत सुंदर गजल,,,बधाई शालिनी जी,,,

    Recent post: रंग,

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  6. सच है सूरत से सीरत का अंदाजा नहीं होता ...
    बहुत ही लाजवाब ओर उम्दा बात इस शेर के माध्यम से कही है आपने .... अच्छी गज़ल ...

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  7. उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...

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  8. धन्यवाद प्रदीप जी..मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए!

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  9. कहवत ही है -ढोल में पोल!

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  10. क्या खूब खा है चंद अल्फाजों में आज के तमाशे को स्थितियों के विडंबन को .बेहतरीन रचना .

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