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Monday, 26 March 2012

ख्याल...कुछ इधर उधर के

१............एक और सोच 
सोचा......
आज फिर 
कुछ अलग सोचें 
अलग से ख्याल, नए अल्फाज़,
अंदाज़ ए बयाँ भी जुदा खोजें 
कोशिश कि लाख मगर 
मुमकिन ये हो न पाया 
हर ख्याल में अपने 
हमख्याल किसी को पाया 
कभी इनसे तो कभी उनसे 
कभी किसी और से तो कभी तुमसे 
मिल ही जाते हैं 
ख्यालों के सिरे 
अब ऐसे में भला कोई कैसे 
नए सिरे से सोचे????

२. ...... एक और इंतज़ार 

इंतज़ार है मुझे 
उस पल का 
जब 
तुम्हारे होने, न होने से 
तुम्हें पाने या खोने से 
मुझे फर्क न पड़े 
पर शायद 
इस पल के लिए 
मुझे करना पड़े इंतज़ार
उस पल का 
जब मेरे खुद के होने का 
मुझे पता न चले............



Wednesday, 21 March 2012

वजूद

दो हिस्सों में बँटा हुआ ........वजूद
पहला, दूसरे से बिलकुल जुदा 
दोनों ही, एक दूसरे पर 
हावी होने की कोशिश में
एक दूसरे को मात देते
अपना मालिकाना हक़ जताते
तन और मन पर
उन्हें हरदम अपने
काबू में रखना चाहते


एक आवारा , एक संजीदा
एक रुबरु  , एक पोशीदा
कितने ही अलग-अलग चेहरों में
संजीदगी से निभाना चाहता
अपना हर किरदार
पर
आवारा वजूद तो
बिना मकसद, बेवजह भटकता
हर पहरे, हर हद को पार कर गुज़रता
चाँद के साथ,
आवारगी, रात भर करना चाहे
हर पिंजरे को तोड़
पंछियों सी, परवाज़ चाहे
न कोई बंदिश, न समझौता
बस मनमर्जी ही इसे भाए


ढीठ है, जिद्दी है, सख्तजान बड़ा
न दीन से डरे
न दुनिया की सुनना चाहे


बस अपने ही दोनों हिस्सों को 
मनाता  समेटता, संजोता
काबू में इन्हें रखने को 
सौ जतन करता 
हरदम 
यह वजूद 

Monday, 12 March 2012

कि कोई नज़्म बने .....





मुद्दतें हुईं दिल से कोई 'आह' निकले 
फिर कोई ज़ख्म नया दो, कि कोई नज़्म  बने 


टीस उठती है है अब कम कि भर गए घाव कई 
कुरेद के नासूर बनाओ उन्हें, कि कोई नज़्म  बने 


आ गया हौंसला बहुत अब दर्द सहने का 
दर्द की इन्तहां बढाओ,  कि कोई नज़्म  बने 


खारा पानी भी आँखों का सूख चला है अब 
खून के आँसू रुलाओ  कि कोई नज़्म  बने 


हर बददुआ खो रही  है असर कि फ़ना करने को हमें
 अब तरकीब  नई लाओ  कि कोई नज़्म  बने 


ठोकर खा के गिरने से बचे हैं फिर से हम 
संग राह में कुछ और बिछाओ  कि कोई नज़्म  बने 


बुझा चुके हर चराग, स्याह और करने को रात 
टिमटिमाते तारों को भी बुझाओ  कि कोई नज़्म  बने 


तुम्हारे जश्न में रौनक अभी है कम ज़रा 
मेरे हालात पे ठहाके लगाओ  कि कोई नज़्म  बने 



Sunday, 4 March 2012

खो गई कविता

खो गई कविता 
जी हाँ , 
फिर से 
अभी कुछ देर पहले ही 
खाना बनाते हुए 
मन में बन रही थी 
एक कविता 
आटा गूंधते  हुए 
मन में गुंध रहे थे 
कुछ अनगढ़े भाव 
फिर कुछ और शब्द डाल
यत्न से कुछ और 
......और गूँधा
आटे के साथ साथ 
आकार लेने लगी
........ कविता 
धीरे-धीरे
रोटियों की सौंधी महक 
और मन में महकती कविता 
कागज़ पे उतरने को आतुर 
सोचा
 कुछ देर और 
बस थोडा काम और 
और फिर 
कुछ और थोड़ा काम 
....बस 
रात गहराती गई ....
सब के सोने के बाद 
कागज़ कलम उठा 
शुरू किया जो लिखना 
हाथ से फिसल-फिसल 
भागने लगे 
इधर- उधर सब भाव 
शब्दों को पकड़ने की कोशिश 
कभी भावों को समेटने की  
पर दोनों ही 
देते रहे धोखा  
बार- बार 
और इस बार भी 
नींद की गफलत में 
फिर से खो गई 
एक और कविता 
................. ऐसे ही
न जाने कितनी ही बार 
कभी सिरहाने के नीचे 
तो कभी काम के ढेर के पीछे 
रख के भुला दी जाती 
तो कभी 
खो जाती कविता ............ 




















Thursday, 1 March 2012

ये मेरे अल्फ़ाज़

कभी- कभी ,
बहुत कुछ कहने की कोशिश में 
सब कुछ कर देते
बर्बाद 
ये मेरे अल्फ़ाज़   


जहाँ ज़रुरत भी नहीं इनकी 
जो बयाँ कर पाना
हैसियत भी नहीं इनकी  
क्यों हदें भूल अपनी 
करना चाहते 
फिर वही  बार-बार 
ये मेरे अल्फाज़ 


लफ़्ज़ों में नहीं बँधते  
जो बसे  सिर्फ तस्सव्वुर में 
हवा से भी शोख 
तितलियों से भी रंगीन 
खुशबू की तरह फिज़ा में घुलते 
जज्बातों को 
क्यों बाँध लेना चाहते 
बार-बार 
ये मेरे अल्फ़ाज़


बेअक्ल हैं ये 
नासमझ 
क्यों नहीं समझते 
अल्फाजों में बंधते ही,
जज़्बात 
बन जाते हैं 
सारे जहां की जागीर 
मल्कियत उन पे फिर खुद की 
रह पाती कहाँ 
जिसका जो दिल करे 
वही  मतलब निकालता है 
हर कोई अपने-अपने 
हिसाब से उन्हें बाँचता है 


कमान से छूटे तीर से 
फिर वापस कहाँ आ पाते 
दिल के तरकश में 
बिना करे वार 
ये मेरे अल्फाज़