कौन -सा पथ मैं चुनूँ
है कुहासा हर तरफ़, हर राह है बाधा भरी,
कुछ दूरी पर हर ओर ही, दीवार-सी मानो खड़ी |
साफ़ जब मंजिल नहीं तो, किस तरफ आगे बढूँ ?
कौन-सा पथ मैं चुनूँ?
अस्तित्व को मेरे कोई, अभिप्राय तो मिल जाए जो,
उत्तर मेरे इन प्रश्नों के, प्राप्त जिससे कर सकूँ
कौन-सा पथ मैं चुनूँ?
गतिहीनता बेड़ी बनी, पाँव है मेरे पड़ी,
द्वंद्व का है शोर मन में, संशय में प्रज्ञा जड़ी|
थाम लो उँगली प्रभु, भव-सिन्धु से मैं भी तरूँ,
तेरी ओर लेकर जाए जो, बस वही पथ मैं चुनूँ |
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शालिनी रस्तौगी
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