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Sunday 17 April 2022

रीता मन

 

रीता मन - रीते नयन, भीगे-भीगे पल क्या लिखूँ?

सूना आँगन - सूना उपवन, उल्लास प्रेम का क्या लिखूँ?

 

वे सावन संग भीगे थे हम, रुत वसंत झूमे थे संग,

मकरंद प्रेम का बिखरा था, बूँदों में तन-मन पिघला था,

तुम संग सब मौसम बीते, पतझड़ का सूनापन क्या लिखूँ ?

 

वो हाथ लिए हाथों में जब, आँखों में बातें होती थीं,

पुलकित-पुलकित दिन होते थे, पूनम की रातें होती थीं ,

तुम संग गए सभी उजियारे, मावस का तम क्या लिखूँ ?

  

कितनी कसौटियाँ

 

कितनी कसौटियाँ, कितनी परीक्षाएँ,

तुम बनाते रहे ... हर बार ,

परखने को .... एक औरत का किरदार |

हर बार,

अपने ही बनाए आदर्शों पर

तुमने उसे जाँचा - परखा – घिसा – नापा - तोला,

और लगा दिया टैग ...

किसी पर पाकीज़ा .... किसी पर दागदार

किसी पर बेगैरत ... किसी पर गैरतदार |

बस अपने ही नजरिये से ,

अपने उसूलों के चश्में से ,

तुमने गहराई से देखा ,

उसका रोम-रोम, उसका तार-तार |

फिर खुद ही किया फैसला –

किसकी जगह घर, किसकी बाज़ार |

तुमने ही लगाईं बंदिशें,

तुमने ही तोड़ीं हदें,

तुमने बेपर्दा किया, तुमने ही परदे  ढके|

हर बुराई के लिए ,

उसको बनाया गुनाहगार,

बार-बार, हर बार ......

कभी खुद को भी तो कसा होता,

जाँचा – परखा – घिसा होता |

उन्हीं मानकों, उन्हीं कसौटियों पर,

तपकर कभी निकले तो होते,

आदर्शों की उन भट्टियों पर|

पिघलाया होता कभी,

पुरुषत्व का यह अहंकार,

अपनी गलतियों को कभी,

गलती से ही कर लेते  ... स्वीकार|

खुद के बनाए मानकों पर ,

खुद को धरते एक बार,

औरत बनकर देखते खुद

मर्दों की दुनिया के अनाचार |

 

 

 

 

औरत की आवाज़

 औरत की आवाज़

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औरत की आवाज़ हूँ मैं ,
हमेशा से पुरज़ोर कोशिश की गई,
मुझे दबाने की ,
हमेशा सिखाया गया मुझे ....... सलीका ,
कितने उतार-चढ़ाव के साथ,
निकलना है मुझे |
किस ऊँचाई तक जाने की सीमा है मेरी ,
जिसके ज्यादा ऊँची होने पर मैं,
कर जाती हूँ प्रवेश
बदतमीज़ी की सीमा में ... |
कैसे है मुझे तार सप्तक से मंद्र तक लाना ,
कब है मुझे ख़ामोशी में ढल जाना ,
सब कुछ सिखाया जाता है ... प्रारंभ से ही |
कुछ शब्दों का प्रयोग
जिन्हें अक्सर प्रयोग किया जाता है
औरत-जात के लिए
निषिद्ध है मेरे लिए
क्योंकि एक औरत की आवाज़ हूँ मैं |
अन्याय, अत्याचार या अनाचार के विरोध में
मेरा खुलना
इजाज़त दे देता है लोगों को
लांछन लगाने की
मेरा चुप रहना, घुटना, दबना सिसकना ही
दिलाता है औरत को
एक देवी का दर्ज़ा ,
मेरे खुलते ही जो बदल जाती है
एक कुलच्छिनी कुलटा में |
मुझ से निकले शब्दों को हथियार बना
टूट पड़ता है यह सभ्य समाज
सभी असभ्य शब्दों के साथ
उस औरत पर
खामोश कर देने को मुझे
हाँ
एक औरत की आवाज़ हूँ मैं
सिसकी बन घुटना नहीं चाहती
चाहती हूँ गूँजना
बनकर .............. ब्रह्मनाद |
द्वारा
शालिनी रस्तौगी

किश्तियाँ हैं ये कागज़ी


किश्तियाँ हैं ये कागज़ी , दूर तक चलेंगी क्या?
खुशबुएँ काग़ज़ी फूलों से, चमन को मिलेंगी क्या?

जुबां की नोक से जिसे चाक़ किए बैठे हो,
सुइयाँ फटे दिल का दामन सिलेंगी क्या?
लिख तो दिया है कि मुहब्बत है हमसे
रेत पे लिक्खी इबारतें टिकेंगी क्या?
एक चौराहे पे राहें जो जुदा हो गई हों ,
किसी चौराहे पे वो चारों फिर मिलेंगी क्या?
खून और आग से सींचा गया हो जिन्हें
बस्तियां उन वीरानों में फिर बसेंगी क्या?
गोलियाँ, गालियाँ, बदकारियाँ, दहशत औ वहशत
यहाँ फैला के उस जहान में हूरें मिलेंगी क्या?

दर्द पे अपनों के तुम, बेगाने बन के हँस दिए,


दर्द पे अपनों के तुम, बेगाने बन के हँस दिए,

गैर तो फिर गैर थे, अपनों ने ताने कस दिए।

कौन -सा दिल लाए हो, दिल है भी या पत्थर कोई,
सिसकियों चीखों के तुमने, नाम नाटक रख दिए।
चुटकियाँ चीखों की लीं, ज़ख्मों पे छिड़का नमक,
वैद्य बनकर आए थे, तकलीफ़ देकर चल दिए।
कुछ पे सितम, कुछ पे करम, ये कौन सा अंदाज़ है,
एक का हक़ छीन, दामन दूसरों के भर दिए।
बाग था बुलबुल का, शिकरों ने उजाड़ा था जिसे,
सय्यादों ने बुलबुल की तरफ़ लेकिन निशाने कर दिए।
आज अपनी आन पे आवाज़ ऊँची जो करी,
तुमने छाती पे हमारी, ज़ुल्मी के तमगे जड़ दिए।
प्रेम और इंसानियत तो फ़र्ज़ था अपना फ़कत,
दुश्मनी तुमने निभाकर, फ़र्ज़ पूरे कर दिए।
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शालिनी रस्तौगी