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Sunday, 20 July 2014

चाहे न दो प्रत्युत्तर तुम,


चाहे न दो प्रत्युत्तर तुम, 
मन में मेरे संतोष यही,
विनती अपने आकुल हिय की, 
तुम तक मैंने पहुँचाई सही| 

कुछ पीड़ा कुछ संताप लिखे,
कुछ प्रीत भरे उदगार लिखे
हर अक्षर में जिसके मैं थी,
पाती तुम तक पहुँचाई वही|

संदेश नहीं, न संकेत कोई ,
न आस मिलन की लेश कोई ,
सुन एक पुकार आओगे तुम,
मन में प्रतिपल विशवास यही |

न, विरहन न कहना मुझको ,
हर ओर मेरे तुम ही तुम हो ,
हर क्षण तुम में मैं जीती हूँ
है मेरे लिए संजोग यही |

8 comments:

  1. मन का है विश्‍वास यही ....... ये विश्‍वास ही तो जीवन का संबल है
    भावमय करते शब्‍दों का संगम

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  2. प्रेम और आशा सरोबर रचना ... बहुत सुन्दर ...

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  3. आपकी कविता का भाव तो श्रेष्ठ है ही लेकिन दो उचित शब्दों के कारण जबरदस्त चमत्कार की निर्मिति हो गई है। 'विनती' और 'पाती' आम शब्द है पर शब्दों की लडियों में उचित जगह पर उनको आसनस्थ करना किसी मोती के चमकने जैसा है।

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    1. डॉ. विजय , आपके द्वारा की गई समीक्षात्मक टिप्पणी हमेशा प्रेरणा देती है |
      साभार !

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  4. शुक्रिया आदरणीय सुशील जी !

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