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Monday, 9 June 2014

शब्द

शब्द
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शब्द..
ऐसे ही नहीं उकर आते
अभिव्यक्ति यूँही नहीं ले लेती है आकार
देर तक
धीमे-धीमे सुलगती हैं
सीले से भावों की लकड़ियाँ
और
विचारों के कोयले
अस्पष्टता के धुएँ में
धुंधला जाती है ज़ुबान
भीतर ही भीतर सुलगते अहसासों पर
जमती जाती है
अव्यक्तता की राख...
फिर अचानक कभी
चटक कर फूटता है कोई भाव
और शब्दों की चिंगारियाँ
फूट बिखरती हैं फिजा में
कुछ शब्द हाथ आते हैं
कुछ छूट निकलते हैं
कुछ शब्दों को छूने से
जलती है जुबां
कुछ से कलम और कुछ से जहाँ
कुछ शब्द चिंगारियाँ
आ गिरती हैं मानस पटल पर
कुछ ठंडी होने पर
स्याही से उनकी
उभरते हैं कुछ अनमोल से
शब्द 

4 comments:

  1. बहुत बेहतरीन..... शब्द कागज पे यों ही आसानी से नहीं उतरते ....

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  2. आपके शब्दों का तो मैं कायल हूँ. बहुत पहले से आपको पढता रहा हूँ. दुआ है आप यूँ ही लिखती रहें.

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  3. शब्दों का अप्रकट से प्रकट तक का सफल सफर भाव की सार्थक अभिव्यक्ति करता है। कविता में कवि के एहसासों को पकडा है।

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  4. शब्द को लेकर लिखी एक सुन्दर रचना |

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