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Wednesday, 24 April 2013

आँखें .


जुदा मुझसे मुझे कर जो गईं आँखें
मेरी पहचान अब बन वो गईं आँखें .

मुहब्बत की कहानी कब से अटकी
रवाँ अश्कों में कर उसको गईं आँखें

न खौफ़ से जमाने के डरीं ज़रा
न डरके ये झुकीं, अड़ तो गईं आँखें

न थी दास्ताँ बड़ी आसाँ बयाँ करनी
सुनाती मुख़्तसर में जो गईं आँखें

पलक अंदाज  नज़रों से हमें देखा
जिगर से रूह तक बस वो गईं आँखें

खुमारी थी,नशा था, सुर्ख डोरों में
बिना मै के , नशे में खो गईं आँखे

Friday, 19 April 2013

मुख़्तसर रात


मुख़्तसर रात थी, लम्हा-लम्हा ढलती रही 
खत्म अफ़साने हुए न, दास्ताँ चलती रही .

न तेरी आँख में अश्क कम,पुरनम चश्म भी मेरे 
रुखसारों पर तेरे मेरे, एक धार सी ढलती रही .

मुहब्बत की दास्ताँ, कैद थी नम पलकों तले 
कतरा कतरा आँख से, कहानियाँ पिघलती रहीं

मंजिलों से फासला अपना रहा यूँ उम्र भर 
हम कदम बढ़ाते रहे, मंजिल परे हटती रही .

तारे टूट गिरते रहे, छीजता रात का दमन रहा, 
ता-शब मेरी सर्द आहों से, चाँदनी जलती रही . 


Saturday, 13 April 2013

देखि ढिठाइ ..सवैया ( मत्तगयन्द)



देखि ढिठाइ कभी उनकी, तनि लाज भरी सकुचाय खड़ी हैं|
आँचल सो मुख ढाँपि लियो, नत नैन करै शरमाय जड़ी हैं|
ऊपर-ऊपर रार करैं पर, भीतर वे हरषाय बड़ी हैं|
कान्ह लखी सखियाँ सगरी, उनपे सब नेह लुटाय पड़ी हैं|

Friday, 12 April 2013

नैन


सवैया  (मत्तगयन्द )

कोटि कला कित सीखि सखी, इन नैनन ने नित वार करै की|
कौन अहेरि सिखाय दियो सखी, ऐसन युक्ति सिकार करै की|
बैनन सीख रहे नव जानत, मूक कला तकरार करै की|
बान कमान अनंग छुटै जब, जाय लगे हिय मार करै की|

Thursday, 11 April 2013

रिश्ते ... ( श्रंखला -3 )


रिश्ते ...
गीली मिट्टी से 
समय के चाक पर धरे 
गढे जाते हैं 
बहुत प्यार से 
अनुभव की उँगलियों से 
आकार पाते
भीतर - भीतर
भावों से सहार पाते
गढे जाते हैं
रिश्ते
घर-परिवार के आवे में
पकते
सौंधी सी महक फैलाते
धीमे-धीमे
पकते जाते हैं
रिश्ते .....

Sunday, 7 April 2013

तो क्या ...........


पैरहन हो बादशाही, चेहरा नूरानी तो क्या ,
रूह में वहशत हो अगर, फिर ज़िस्म इंसानी तो क्या .

बेरुखी का क्यों दिखावा, क्यों जुबां पे तल्ख़ नश्तर,
है जिगर में इश्क तेरे , त्योरियाँ पेशानी तो क्या .

राज़ खोले आँख क्यों ये, दर्द सीने में भले हो 
हो लबों पे मुस्कराहट, आँख में हो पानी तो क्या .

हाथ में तस्बीह लेकर, लूटते हो चैन सबका,
ख्वाब में दौलत जहाँ की, बात गर रूहानी तो क्या.

मंजिलें भी ढूँढ लेती, हैं पता उस शख्स का खुद,
पैर रख तो हौंसले से, राह हो अंजानी तो क्या .

है जुदा अंदाज़ तेरा, हैं  निराले   तेरे ढंग

हर तरफ़ है बात तेरी, है हमें हैरानी तो क्या . 

Tuesday, 2 April 2013

इक आह ...




मुद्दतों, कौन सी शै थी जो , मचलती-सी रही.
तेरे इलज़ाम पे हर साँस,  अटकती सी रही .

प्यास कैसी थी जो तड़पाती रही तिल-तिल मुझको ,
 उम्र मैखाने कि गलियों में , भटकती-सी रही .

हम न  शायर थे कि जज़्बात जुबां पर लाते
फांस सी दिल में हरेक बात,  खटकती-सी रही .

उनसे बावस्ता हुए यों कि न बिछड़े  न मिले  ,
जुस्तजू में ही तेरी, ज़ीस्त ये  कटती-सी रही


क्या तेरी  बज़्म में , इलज़ाम लगाते तुझपर ,
आह सीने में ही उठती सी, दुबकती -सी रही .

हम थे आवारा कि दर-दर यूँही भटका ही किए 
रास न आया जहाँ , उम्र फिसलती -सी रही .

आस की शम्मा सरे शाम से, जलाई हमने,
कतरा-कतरा मगर उम्मीद, पिघलती-सी रही .