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Thursday, 11 April 2013

रिश्ते ... ( श्रंखला -3 )


रिश्ते ...
गीली मिट्टी से 
समय के चाक पर धरे 
गढे जाते हैं 
बहुत प्यार से 
अनुभव की उँगलियों से 
आकार पाते
भीतर - भीतर
भावों से सहार पाते
गढे जाते हैं
रिश्ते
घर-परिवार के आवे में
पकते
सौंधी सी महक फैलाते
धीमे-धीमे
पकते जाते हैं
रिश्ते .....

15 comments:

  1. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति .....

    और फिर
    पके हुये रिश्ते
    अचानक ही
    ज़ोर से लगी ठोकर से
    टूट जाते हैं ...
    बिखर जाते हैं
    पकी हुई मिट्टी
    होती है सख्त इतनी
    कि
    लाख जतन से भी
    जुड़ नहीं पाती ...

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    1. बहुत सुन्दर संगीता जी ... आपने तो पूरी कर दी कविता!

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  2. बिलकुल सही बात लिखी है आपने.

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    1. धन्यवाद निहार रंजन जी !

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  3. बड़े नाज़ुक होते हैं रिश्ते....
    एक बार पकने के बाद...गर टूट गए तो न मिट्टी में मिल पाते हैं न जोड़े जाते हैं..

    सुन्दर रचना..
    अनु

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    1. क्या बात कही है अनु जी ..वाह !

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  4. बहुत ही शानदार..... हाँ यूँ ही वक़्त मजबूत करता है इन्हें।

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  5. घर परिवार के आवे में पकते हैं .............. वाह
    अनुपम भाव संयोजित किये हैं आपने ... बेहतरीन अभिव्‍यक्ति

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  6. रिश्ते बनने की प्रक्रिया बडी नाजुक भी और कठोर भी। किसी का किसी से किस रूप में कौनसा रिश्ता बनेगा पता भी नहीं चलता पर रिश्ता मात्र बन जाता है। किसी से जुडने के लिए सालों लगेंगे और किसी से जुडाव एक क्षण में भी। रिश्तों की गढने की प्रक्रियां आपके द्वारा बताई कसौटियों से बडी ताकतवर बनती है। सहज और सुंदर कविता।

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    1. बहुत सुन्दर बात कही है विजय जी ... ब्लॉग पर पधारने के लिए आभार!

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  7. वाह!!! बहुत बढ़िया | आनंदमय | रिश्तों की बहुत सटीक परिभाषा बतलाई आपने | आभार

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  8. वाह !!! बहुत बढ़िया सुंदर प्रस्तुति,शालिनी जी,,,

    Recent Post : अमन के लिए.

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  9. सहज ही पकने वाले रिश्ते ... लंबे समय तक कायम रहते हैं ...
    बहुत ही भावपूर्ण लेखन ...

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