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Tuesday, 30 October 2012

खता मुआफ


खता प्यार करने की है, मुआफी के तलबगार हैं
खता मुआफ हो, हाँ हम  ही गुनाहगार हैं.

कब  तुमने हमसे वफाओं का, कोई सौदा किया था,
जफ़ाओं की तिजारत के तेरी, हम ही खताबार हैं.

दिल की गलती कि वो टूटा, क्यों शीशे का बना था
संग-ए-जफा खा के अब,  बिखरने को भी तैयार हैं

फितरत है हमारी तो अश्कों में जज्ब होने की,
तल्खियाँ तुम्हारी कब, सख्त इतनी बेशुमार हैं

रकीब खुद ही बन बैठे हैं , जाने कैसे अपने प्यार के
दिल चाहे तुम्हें तो रोकें, कहते कि नाफरमाबरदार है.

लुटा के खुदी को बने बैठें हैं हम फ़कीर,
जमाना  समझे  है कि अब भी ज़रदार हैं .



Wednesday, 24 October 2012

इंसानियत


दिल से निकाल मंदिर-औ - मस्जिद में कैद कर दिया ,
खुदा ने तो नहीं बाँधा था अपने-आप को इन खाकों में .

नवाज़ा था जिसको 'अशरफुल मख्लुकात' के खिताब से
लिए फिरते हैं अब रावण के दस सर अपने शानों पे.

सुनाई पड़ती अब कहाँ कृष्ण कि बंसी फिजाओं में
बस गूँजती अब धनुष की टंकार सबके कानों में

प्यार का पैगाम दिया करते थे जो गीता कुरान
बनते जा रहे अब हथियार, कुछ नामुराद हाथों में

धर्म के ठेकेदार बन जो फतवे दिया करते हैं यों
मानो  खुदा ने सौंप दिए, अपने फरमान इनके हाथों में

कहाँ सुलेमान अब जो चींटियों को भी कुचलने से बचा ले
कुचल कर बढ़ रहे हैं बेबसों को, अपने जल्लाद पांवों से

मिली है काबीलियत तो इंसानियत का सर ऊँचा करो,
पहचाने जाओ जो तवारीख में , अपने नेकनामों से.



Sunday, 21 October 2012

भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार ..............
मैं क्यों लिखूँ
इस विषय पर
मुझे राजनीति से क्या?
जो चाहे, होता रहे बस
होतें हैं करोड़ो के घोटाले
तो हों
मेरी जेब से क्या जाता है?
मगर........
देश की वो पूँजी
जो भ्रष्ट नेताओं ने डकारी
खुद और अपने सगों में
मुफ्त की खीर समझ बाँटी
कुछ योगदान
तो मेरा भी था
उसमें
आखिर मैं हूँ
देश की
एक ज़िम्मेदार नागरिक
भरती नियमित टैक्स
जो देश हित में न लग
पहुँच जाता
भ्रष्टखातों में ..........



Friday, 19 October 2012

बातें कुछ यहाँ - वहाँ की

बहुत से शेर इधर उधर लिख कर छोड़  दिए .... आज सोचा..... क्यों न कुछ शेरों को समेटा जाए ....

1,बेबसी 
कायदा सीखा न कभी ककहरा पढ़ा शायरी का,
मोहतरम शायर होने का गुमां लिए फिरते हैं. 
कभी काफिया तंग  हो जाता है,  तो कभी, 
लफ्ज़  कतरा-कतरा के निकल जाया करते हैं . 

( यह मैंने सिर्फ अपने लिए लिखा है... कृपया कोई भी इसे अन्यथा न ले|)

2. इज़हार-ए-मुहब्बत

अश्क के  पलक  की कोर तक आते - आते
राज ए दिल ज़ुबां की नोक तक आते - आते
नामालूम  कितनी सदियाँ बीत गई
अपनी मुहब्बत ए सनम जताते - जताते

 3.  बेरुखी

यूँ तो मुद्दतों उनसे मुलाकात नहीं होती
आमने-सामने होते हैं मगर बात नहीं होती.
वो तो देख के भी  फेर लेते हैं नज़रें हमसे,
अपनी निगाह भी कभी गुस्ताख नहीं होती.

 कहने को तो हजार बातें हैं लबों में दबी हुई 
 मगर क्या करें दिल की तो  जुबान नहीं होती, 
कांपने लगते हैं लब लड़खड़ा जाती है जुबान
बेरुखी उनकी ए दिल अब बर्दाश्त नहीं होती 

4. ज़ख्म

उसका दिया हर जख्म था हर्फ़ की मानिंद
उकेरा हुआ किताब ए दिल के हर वरक पे
लाख कोशिश  की मगर, मिटाया न गया
मिटाना जो चाहा तो मिट गई हस्ती दिल की

5. शीशा-ए-दिल  

वैसे तो टुकड़े किये हैं हजार बार उसने दिल के   ,
हर बार बड़े जतन से हमने उन्हें जोड़ा है .
जोड़ना चाहें भी तो अब न जुड़ेगा  फिर से ,
अबकि किरच-किरच कर उसने दिल छोड़ा है .

6. संगदिल 

अब कौन बात करे उस संगदिल से  दिल नवाजी की
हर बात का  जो दो टूक जवाब दिया करते हैं  
बने फिरते  हैं बड़े सख्त दिल जो दुनिया के लिए 
अपने सवाल पर अश्क अक्सर बहाया करते हैं 

7.आफताब

आफताब हूँ ,ताउम्र झुलसता - जलता रहा हूँ 
पर सौगात चांदनी की तुझे दिए जा रहा हूँ मैं .

रातों के सर्द साए तेरे आंचल पे बिछा कर 

खुद फलक से दरिया में छिपा जा रहा हूँ मैं .


जलें न मेरी आंच से कहीं चश्म-ए-तर तेरे ,


सितारों की बारात छोड़े   जा रहा हूँ मैं.







Thursday, 18 October 2012

गैरियत


कभी तपाक से मिलते थे, गले लगते थे, पास बिठाते थे
गैरियत का अब आलम देखो, दूर से ही कतरा के निकाल जाते हैं

बेतकल्लुफी इतनी थी कि,  तू तड़ाक भी मीठी लगती थी
अब तो 'आप' और 'जनाब' से, फासले बढ़ाए चले जाते हैं .

खामियों पे चिढकर वो रूठना उनका, था दिल के बहुत करीब,
नज़रअंदाजी  से उनकी मगर,  दिल पे तेग से चल जाते हैं

लगाये नहीं लगता हमसे, उनकी बेरुखी का हिसाब ,
शिकवे-शिकायतें तो  मुहब्बत के खाते में चल जाते हैं .

लाख दीवारों पार भी पहुँच जाती थीं दिल की सदाएं उन तक
अनसुना हर पुकार को कर, बेज़ार हो  निकल जाते हैं.


Tuesday, 16 October 2012

ज़िक्र तेरा


महफ़िल में आते ही उसके समां महक सा जाए है
साँसों से जिगर में उतर जाए, ज़िक्र तेरा इत्र गुलाब .

रोशनी में नहला जाए  , रौशन जहाँ को कर जाए है 
ज़र्रे ज़र्रे को जगमगा जाए , ज़िक्र तेरा जैसे आफताब 

हर शिकवा मिट जाए , गिला जल हो जाए है ख़ाक 
चटक के जलता है यूँ , ज़िक्र तेरा  संदल की आग 

रुमानियत सी बिखर गई फिजाओं में दूर तलक
रंगों की बारात सजाए, ज़िक्र तेरा है गुल शादाब 

सर से पाँव तक पाकीज़गी में सराबोर कर गया 
रूह तक भिगो जाए है , ज़िक्र तेरा गंगा का आब 

एक शोखी थी, नजाकत थी,अदब था और  अदा थी 
ज़िक्र तेरा जैसे  उस शोख का नजाकत भरा आदाब 

Wednesday, 10 October 2012

मुंतज़िर............


मुंतज़िर बैठे हैं तेरी राहों में कब से पलकें बिछाए,
रास्ता भूल के कभी तू भी, गाहे बेगाहे आजा.

वफाएं तो न थी कभी और न कभी होंगी शायद,
सवाल -ए-रस्म है, जफ़ाओं की रस्म निभाने आजा.

रिसते जख्मों पे चढ़ा जाता है बीतते वख्त का  मुलम्मा,
कर  कोई  तरकीब नई , फिर नया जख्म लगाने आजा .

रुसवाई सरेआम मेरी, भुलाने सी लगी है दुनिया,
फिर कोई इलज़ाम नया, मेरे माथे पे सजाने आजा. 

अरसा हुआ जाता है देखे खुद को, भूल चुके हैं शक्ल,
आँखों का अपनी आइना, फिर एक बार दिखाने आजा.

महफ़िल को मेरी वीरां कर छोड़ा है कबसे ,
गैर के रक्स में ही सही,पर शम्मा जलाने आजा .

हमराज़ मेरे, गुनाह -ए - उल्फत की सज़ा,
दे फिर एक बार, अश्कों में डुबोने आजा.

पेशोपश में फिर दिल, जियें कि मर जाएँ,
मरने के इरादे को फौलाद बनाने आजा.

क्यों हम ही तेरी वज़्म से, खाली हाथ लौटें  ए 'दिल',
अश्कों की सौगात से, गम की बारात सजाने आजा. 







Friday, 5 October 2012

रुखसती


रुखसती की भी कोई रस्म हुआ करती है, 
यक-ब-यक रास्ते हमसफ़र बदला नहीं करते.

आसुओं  में  धुले वादे, कुछ दोबारा मिलने की कसमें,
सिसकियों में दबे अल्फाज़, गिरह में बंधे कुछ हसीं पल,
साजो-सामान ये सब विदाई का हुआ करते हैं, 
यूँ खाली हाथ तो किसी को विदा नहीं करते


बेचैनियाँ बिछडने की, कशमकश कहीं खोने की 
कुछ अनकही कह देने की, कुछ कही-सुनी भूल जाने की
हजारों बातें  जुदाई की दरकार हुआ करती हैं 
खामोशियाँ से तो तन्हा सफर कटा नहीं करते 

ठिठक कर उठते हैं कदम, पलट फिर लौटती हैं नज़रें 
लरजते लबों की जुम्बिश, हवाओं में लहराता दामन
रोक महबूब को लेने की ख्वाहिशे बेशुमार हुआ करती है 
इन लम्हों को हाथ से यूँ, फिसलने दिया नहीं करते