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Thursday, 18 October 2012

गैरियत


कभी तपाक से मिलते थे, गले लगते थे, पास बिठाते थे
गैरियत का अब आलम देखो, दूर से ही कतरा के निकाल जाते हैं

बेतकल्लुफी इतनी थी कि,  तू तड़ाक भी मीठी लगती थी
अब तो 'आप' और 'जनाब' से, फासले बढ़ाए चले जाते हैं .

खामियों पे चिढकर वो रूठना उनका, था दिल के बहुत करीब,
नज़रअंदाजी  से उनकी मगर,  दिल पे तेग से चल जाते हैं

लगाये नहीं लगता हमसे, उनकी बेरुखी का हिसाब ,
शिकवे-शिकायतें तो  मुहब्बत के खाते में चल जाते हैं .

लाख दीवारों पार भी पहुँच जाती थीं दिल की सदाएं उन तक
अनसुना हर पुकार को कर, बेज़ार हो  निकल जाते हैं.


21 comments:

  1. सुन्दर रचना...

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद !

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  2. बहुत ही बढ़िया


    सादर

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  3. Replies
    1. बिल्कुल सही कहा मुकेश जी.... ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद!

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  4. वाह जी वाह क्या बात खास के ये पंक्ति तो लाजवाब है

    बेतकल्लुफी इतनी थी कि, तू तड़ाक भी मीठी लगती थी
    अब तो 'आप' और 'जनाब' से, फासले बढ़ाए चले जाते हैं .

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  5. लगाये नहीं लगता हमसे, उनकी बेरुखी का हिसाब ,
    शिकवे-शिकायतें तो मुहब्बत के खाते में चल जाते हैं ....वाह

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  6. लगाये नहीं लगता हमसे, उनकी बेरुखी का हिसाब ,
    शिकवे-शिकायतें तो मुहब्बत के खाते में चल जाते हैं

    बहुत बढ़िया

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  7. वाह.....
    बहुत बढ़िया.....

    अनु

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  8. बहुत ही बढियां गजल लिखा है..
    बहुत ही बेहतरीन....
    :-)

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  9. सुंदर रचना... एक नजर इधर भी... http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com

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    1. धन्यवाद कुलदीप जी ........

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  10. हलचल में शामिल करने के लिए शुक्रिया यशवंत.

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  11. वाह..... वाह बहुत ही खुबसूरत ।

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  12. बहुत सुन्दर शव्दों से सजी है आपकी गजल ,उम्दा पंक्तियाँ ..

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