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Sunday, 8 January 2012

ख़ामोशी

ख़ामोशी

 कब से खामोश पड़ी है ये कलम ,
कब से चुपचाप हैं ख्यालात मेरे ,
दिल पे छाया है कब से  कोहरा घना
सर्द आहों से बर्फ बन गए अश्क मेरे

जुबां से निकलते अल्फाजों को
बंदिश  हज़ार हर तरफ से घेर लेती है
जज्बातों की सुलगती आंच को
राख जिम्मेदारियों की बुझाये  देती  है

अपनी ही आवाज़ सुनाने को
हर साँस- साँस अकुलाती है
चीख सन्नाटे की कानों को चीर
दिल  की गहराई में  समा जाती है

हलक में दम तोडती आवाज़ अब
चीख बन चिल्लाना चाहती है
हर गुनगुनाहट अब राग बन
लबों पे सज जाना चाहती है

घने कुहासे के पीछे, धीमी  ही,  मगर
रह - रह चमक उठती एक लौ  कहीं
घुट रही पल-पल अँधेरे में मगर
लपट बन भडकना चाहती है




10 comments:

  1. अपनी ही आवाज़ सुनाने को
    हर साँस- साँस अकुलाती है
    चीख सन्नाटे की कानों को चीर
    दिल की गहराई में समा जाती है

    छटपटाहट साफ़ दिखाई दे रही है ..

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  2. अपनी ही आवाज़ सुनाने को
    हर साँस- साँस अकुलाती है
    चीख सन्नाटे की कानों को चीर
    दिल की गहराई में समा जाती है

    बहुत खूबसूरत हैं ये पंक्तियाँ ....शानदार|

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  3. घने कुहासे के पीछे, धीमी ही, मगर
    रह - रह चमक उठती एक लौ कहीं
    घुट रही पल-पल अँधेरे में मगर
    लपट बन भडकना चाहती है

    बेहतरीन लिखा है मैम।

    सादर

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  4. सुंदर भावाभिव्यक्ती

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  5. वाह....
    घुटन का एहसास पाठकों को भी हो रहा है..
    बहुत अच्छी रचना..

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  6. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ,बधाई

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  7. जीवन में बहुत कुछ है कहने को..
    समय पर न कहा जाए तो अर्थहीन होता है..
    आपकी कविता में एक छुपी होई कोई बात है ..जो कवियत्री कहने को आतुर हैं..
    kalamdaan.blogspot.com

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  8. धन्यवाद संगीता जी, इमरान जी,विद्या जी, कुरुवंश जी एवं ऋतु, शायद यह अहसास हम सभी को अपने जीवन में कभी न कभी होता है कि कहने को बहुत कुछ होता है पर कह नहीं पाते .
    कविता पसंद करने के लिए आभार !!!!!!

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  9. बहुत सुन्दर रचना... वाह!

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  10. बेहद ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना....

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