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Wednesday, 23 November 2011

देह से परे

देह की सीमा से परे
बन जाना चाहती हूँ
एक ख्याल
एक एहसास ,
जो होते हुए भी नज़र न आये
हाथों से छुआ न जाए
आगोश में लिया न जाए
फिर भी
रोम - रोम पुलकित कर जाए
हर क्षण
आत्मा को तुम्हारी
विभोर कर जाए


वक्त की सीमा से परे
बन जाना चाहती हूँ वो लम्हा
जो समय की रफ़्तार तोड़
ठहर जाए
एक - एक गोशा जिसका
जी भर जी लेने तक
जो  मुट्ठी से
फिसलने न पाए


तड़पना  चाहती हूँ
दिन - रात
सीने में
एक खलिश बन
समेट लेना चाहती हूँ
बेचैनियों का हुजूम
और फिर
सुकून की हसरत में
लम्हा लम्हा
बिखर जाना चाहती  हूँ


बूँद नहीं
उसका गीलापन  बन
दिल की सूखी ज़मीन  को
भीतर तक सरसाना
हवा की छुअन बन
मन के तारों को
झनझना
चाहती हूँ गीत की रागिनी  बन 
होंठों पे बिखर - बिखर जाना 


जिस्म 
और जिस्म से जुड़े 
हर बंधन को तोड़ 
अनंत तक ..........असीम बन  जाना 
चाहती हूँ 
बस........................................................
यही चाहत 



13 comments:

  1. बहुत अच्छी चाहत है आपकी।

    सादर

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  2. कसक और तड़प लिये मर्म कओ छूती कविता ! सुंदर अभिव्यक्ति !

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  3. और फिर
    सुकून की हसरत में
    लम्हा लम्हा
    बिखर जाना चाहती हूँ

    भावों का सुन्दर सम्प्रेषण ... अच्छी प्रस्तुति

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  4. बहुत सुंदर कविता !
    आनंद आ गया पढ़ कर !

    आभार !

    मेरे मचान पर आपका स्वागत है !

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  5. बहुत सुन्दर रचना , सादर .

    नूतन वर्ष की मंगल कामनाओं के साथ मेरे ब्लॉग "meri kavitayen " पर आप सस्नेह/ सादर आमंत्रित हैं.

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  6. जिस्म
    और जिस्म से जुड़े
    हर बंधन को तोड़
    अनंत तक ..........असीम बन जाना
    चाहती हूँ
    बस........................................................
    यही चाहत

    Vah kya kahu ....bs ak shbd.....bemishal.

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  7. आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद , आपका स्नेह व हौंसलाअफजाई अत्यंत प्रेरणादायक हैं ..... आभार

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  8. जिस्म
    और जिस्म से जुड़े
    हर बंधन को तोड़
    अनंत तक ..........असीम बन जाना
    चाहती हूँ

    अध्यात्मिक का पुट लिए यह रचना आपकी सोच और भावना को बेहतर तरीके से सांझा करती है ....आपका आभार

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    Replies
    1. धन्यवाद केवल राम जी!

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  9. एक बूँद की चाहत है समंदर होना.

    बहुत ही शानदार अभिव्यक्ति.
    सार्थक लेखन.
    शुभ कामनाएं.

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    Replies
    1. धन्यवाद विशाल जी !

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  10. जाने मन कैसा होता है, कभी कभी स्वयं अपने लिए ऐसी चाहत कि दिल तडपता रहे... उफ्फ्फ्फ्फ़

    तड़पना चाहती हूँ
    दिन - रात
    सीने में
    एक खलिश बन
    समेट लेना चाहती हूँ
    बेचैनियों का हुजूम
    और फिर
    सुकून की हसरत में
    लम्हा लम्हा
    बिखर जाना चाहती हूँ

    बहुत भावपूर्ण रचना, बधाई.

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    Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया शबनम जी!

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