Pages

Saturday, 28 May 2011

समय

समय


रेत की मानिंद
हाथों से फिसल जाता है
कभी बन के  पत्थर
राह में अड़ जाता है


कभी बीत जाते है सालों
ज्यों बीता हो एक पल
कभी एक पल बीतने में
 सालों लगाता है


बन कभी मरहम ये
भर देता है पुराने ज़ख्म
कभी कुरेद पुराने ज़ख्मों को
ये नासूर बना जाता है


जीता वही शख्स जिसने
पा लिया इसपे काबू
वर्ना तोह यही लोगों को
अपना गुलाम बनाता है


यही वख्त  कभी बढ़ के खुद
खोल देता है नई राहें
और कभी हरेक राह पर
दीवार नई उठाता है


क्यों कर ना हो मगरूर
क्यों किसी के आगे झुके
ए दोस्त हर शै को ये
सामने अपने झुकाता है

Friday, 27 May 2011

दम तोड़ती संवेदनाएँ


सुना है 
संवेदनाओं का युग                                     
समाप्ति की कगार पर खड़ा 
खड़ा कर रहा है इंतजार 
अपने ख़त्म होने का 
विह्वल हो देख रहा 
लोगों में 
दम तोडती संवेदनाएँ 

बीच सड़क,  निर्वस्त्र पड़ी  

घायल  लड़की के 
जिस्म से टपक रहे खून को 
नज़रंदाज़ कर 
आगे बढ़ गई थी तब 
आज क्यों उबाल पर हैं 
इस कायर समाज की 
नपुंसक  संवेदनाएँ

अबोध बालिका के साथ

बलात्कार की  खबर को ,
सरसरी निगाह से पढ़कर 
अखबार में छपी 
अधनंगी तस्वीरों पर 
आँखों से लार टपकाती 
कुत्सित भावनाएँ 

खाने की मेज़ पर , 
जायकों के बीच
टी.बी. पर आते समाचारों में 
बम धमाके में घायल हुए 
लोगों की चीखों को 
निर्मम हो सुन रहीं 
बहरी संवेदनाएँ 

सड़क पर  पड़े 
घायल अधमरे इंसान के 
चारों  ओर इकट्ठे हुजूम में 
किसी एक हाथ के बढ़ने के इंतज़ार में 
आँख मूँद रही ज़िन्दगी के साथ 
अंतिम साँसें गिन रहीं 
मरणासन्न संवेदनाएँ

भूख से  व्याकुल  कुलबुलाते पेटों पर ,
बम धमाके से उड़ते चीथड़ों पर ,
आग में जले सुलगते जिस्मों पर,
निज क्षुद्र स्वार्थ की रोटियां  सेकते नेताओं की 
माँस पर झपटते गिद्धों  सी 
वीभत्सतर होती जाती 
घृणित संवेदनाएँ

Thursday, 26 May 2011

विश्वास .........

विश्वास 
जब कभी  टूटने लगती है 
विश्वास की डोर 
और भ्रमित मन 
बेलगाम भागने लगता है 
उलझती सी जाती है  अनगढ़ आस्था 
गर्वोंन्मत्त  मस्तिष्क
तर्क वितर्क वांचने लगता है
डगमगाने सी लग जाती है 
अटूट भक्ति जब 
दुस्साहस भर मन प्रश्न उठाता
उस अदृश्य शक्ति पर 
तब 
उस अज्ञान तिमिर में 
कौंध जाते बन ज्ञान रश्मि तुम
और अंतहीन भटकाव को दे जाते
आस्था का सहारा तुम
हौले से सहला अपने अमृत स्पर्श से
श्रद्धा को दे जाते नवजीवन
हर पल हर कण में तुम उपस्थिति   को अपनी
तुम आभासित कर जाते हो
विश्वास के टूटते छोर
और कस जाते हो
    हाँ ................. मैं हूँ 
                          यह विश्वास दिलाते हो !!!

Wednesday, 25 May 2011

.संशय


जब हमारी कल्पना शक्ति संकल्प शक्ति में परिणत   हो  जाती है, तो मन कल्पवृक्ष बन इच्छित फल देने लगता है और  जब तक मन में संशय रहता है तब तक हम संकल्प नहीं ले पाते........... इन्हीं भावों को कविता के रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास ...............संशय
जीवन के वृक्ष से लिपटी 
संशय कि बेल
साथ लिए दुविधा के फल
बांध  देती है कितने ही
जीवन के अनमोल सरस पल
और आशंका की जकड़ में  
घुटता रह जाता है ........... व्याकुल मन 
भविष्य की चिंता में
फिसल जाते हैं हाथ से                                      
वर्तमान के कितने ही
मधुर- मधुर, मदिर क्षण 
आशंका के काले घन
छिपा लेते है घनी ओट में 
आशा की क्षीण रुपहली किरण 
संशय को तोड़
आशंका को छोड़
जो तोड़ पाते हैं ये बंधन 
उनके लिए ही फैला है ............उन्मुक्त गगन का............ विस्तृत आँगन

Sunday, 22 May 2011

मन की आह

मन की आह, जब राह नहीं पाती
भटकती सी फिरती है
चौराहे पर खड़ी
दिग्भ्रमित सी
चहुँ ओर तकती है राह
हर दिशा है अन्जानी
हर गली है बेगानी सी
गैरों से पूछती है पता कभी
गलियारों में घूमती बेवज़ह कभी
और कभी
मील के पत्थर पर बैठ कभी
राहगीरों के पदचिह्न गिनती है
कोई तो राह होगी
जो मंज़िल तक ले जायेगी
और चैन पा जाएगी
ये मन की आह..............

Saturday, 21 May 2011

नव सृजन


हे प्रभु 
सृजन का दो वरदान 
युग युग के गहन तिमिर को तोड़ 
हो आलोकित मेरे प्राण 
वाणी में शक्ति 
अर्थ में मुक्ति 
भावों में गहन सागर अपार 
प्रभु , सृजन का दो वरदान 

कल्पना को मेरी पंख  प्रदान कर 
दो अनंत विस्तृत उड़ान
शब्दों  के कल्प तरु से 
मैं पाऊं इच्छित वरदान
प्रभु , सृजन का दो वरदान

निश्छल भावों की मणियों से
भर दो आज ये झोली खाली
लौटे फिर वही भोला बचपन
फिर अधरों पर मृदुल  मुस्कान
प्रभु , सृजन का दो वरदान