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Monday, 28 December 2020

ज़िद

 

हरेक बात पर कर रहे जो ये ज़िद

कहाँ से हो सीखे अजी तुम ये ज़िद

 

वज़ह-सी वज़ह तो है कोई नहीं ,

बस ज़िदके लिए कर रहे हो ये  ज़िद

 

बुलाया, मनाया, जी समझाया बहुत

मगर बात बनने न देगी ये ज़िद|

 

जो हमदर्द बनकर के भटका रहे हो

सियासी है दाँव, है सियासी ये ज़िद|

 

इमारत ढहा जो न पाया कोई भी,

मकां प्यार का भी ढहा गई ये ज़िद|

 

न नश्तर, न तलवार- तीरों की चुभन है,

जिगर में चुभी जिस तरह से ये ज़िद|

 

जो ज़द में रहे तो बुरी क्यों  लगे,

क़यामत जो ज़द से गुज़र गई ये ज़िद|

 

 

 

 

Sunday, 13 December 2020

इस दिल का सबर हो,

 हो नाम चाहे अब गुमनामी में बसर हो

गुज़र जाए हयात जैसे भी गुज़र हो।


क्या चाहिए जो यूँ भटकता फिरता है

किसी सूरत तो इस दिल का सबर हो,


कौन सराहेगा, सब आँख मूँद बैठे हैं

चल चलें जहाँ किसी को तो कदर हो।


बैठे थे कब से तो हाल तक न पूछा

अब चल दिए तो कहें जाते किधर हो।


कारनामे कई फ़क़त इस शौक में किए,

कि पहले पेज़ पे अपनी भी खबर हो

करें फ़रियाद किससे हम

 करें फ़रियाद किससे हम कि सुनवाई नहीं होती |

रक़म से अश्क की कर्ज़े की भरपाई नहीं होती|


यूँ करने को तो हंगामा खड़ा कर सकते हैं हम भी,

तेरी जैसी मेरी फितरत जा हरजाई नहीं होती |


सरे महफ़िल मुझे बदनाम जो तुम कर रहे हो यूँ ,

मेरी बदनामी से क्या तेरी रुसवाई नहीं होती |


न समझोगे नज़र की बात जो पहले समझ जाते,

जुबां से भी जिगर की बात समझाई नहीं होती|


दरक पड़ जाती है रिश्तों की उस दीवार में अक्सर,

यकीं के ग़ारे से जिसकी भी चिनावाई नहीं होती |


लगा इलज़ाम है उस पर ही उल्टा बेहयाई का,

नज़र जो बेशरम नज़रों से शरमाई नहीं होती|


नज़र के पेंच में दिल की न कट जाती पतंग ऐसे,

अदा से जो पलक तुमने यूँ झपकाई नहीं होती|


भरम रहता सभी को खुशमिज़ाजी का हमारी भी,

अगर हँसते हुए ये आँख भर आई नहीं होती|


ज़रा सा आसरा होता कि बेटा लौट आएगा,

नज़र माँ की बिछी रस्ते पे पथराई नहीं होती |

तो कुछ बात बने।

  ये निज़ाम सुधरे तो कुछ बात बने।

सूरते हाल बदले तो कुछ बात बने।


आदमी में आदमी सी फितरत भी

हो नुमाया सके तो कुछ बात बनें।


शोर में मुद्दा असल न दब जाए

बात मुद्दे की निकले तो कुछ बात बने।


या तो तुझसे या अपने आप से झगड़ा,

बंद हो जाए अगर तो कुछ बात बने।


देवियों को पूजते जिस देश में हम,

बेटी कोई न तड़पे तो कुछ बात बने।


मोमबत्तियाँ जलाने से भला क्या होगा,

सीने में मशाल जले तो कुछ बात बने।


चीख़ सुन मज़लूम की, हर जुल्म के एवज

आँख सबकी छलके तो कुछ बात बने।


बिकती रही बाज़ार में अबतक कलम

तलवार बन चमके तो कुछ बात बने।


बाद ए सबा जो तेरी याद ले आती है,

ये कभी उलटी भी बहे तो कुछ बात बने।

शालिनी रस्तौगी

गुरूग्राम


Friday, 25 September 2020

शाम से आँख में नमी-सी है : गुलज़ार

 शाम से आँख में नमी-सी है,

आज फ़िर आपकी कमी-सी है
दफ़न कर दो हमें कि साँस मिले,
नब्ज़ कुछ देर से थमी-सी है
वक्त रहता नहीं कहीं छुपकर,
इसकी आदत भी आदमी-सी है
कोई रिश्ता नहीं रहा फ़िर भी
एक तस्लीम लाज़मी-सी है।

सर्दियों की ठंडी रातों में पश्मीने की नर्म गर्माहट से भरे लफ़्ज़ों को नज्मों में पिरोने वाले हरदिल अज़ीज़ शायर गुलज़ार, चौका देने वाली उपमाओं से श्रोताओं को चमत्कृत करते , आसान पर सीधे दिल में उतर जाने वाली शायरी जो किसी को भी अपना मुरीद बना ले ऐसे फनकार गुलज़ार साहब का आज जन्मदिन है।

कोई शख्स शायद ही ऐसा होगा जो गुलज़ार की शायरी का दीवाना न हो| लाखों के महबूब शायर हरदिल अजीज़ गीतकार गुलज़ार को आज उनके जन्मदिन पर ढेरों बधाइयाँ और शुभकामनाएँ। आज ही के दिन अर्थात् 18 अगस्त 1936 को दीना, जिला झेलम (अब पाकिस्तान) में जन्मे सम्पूर्ण सिंह कालरा उर्फ़ गुलज़ार का बचपन दीना की गलियों में गुज़रा..। हिन्दुस्तान के विभाजन का ज़ख्म अपने सीने पर लिए गुलज़ार का परिवार अमृतसर आकर बस गया परन्तु गुलज़ार का अधिकतर समय दिल्ली में बिता। मुफलिसी के उस दौर में कभी पेट्रोल पम्प पर तो कभी गैराज में काम करने वाले गुलज़ार की
किस्मत में तो सबके दिलों पर राज करना लिखा था। जहाँ हाथ गाड़ियों के नट-बोल्ट कस रहे होते वहीं दिल-दिमाग शब्दों में उलझे नए नए शेर गढ़ रहे होते। कुछ समय बाद तो किस्मत उन्हें मुम्बई खींच लाई।
गुलज़ार प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन से भी जुड़ गए थे। यहीं काम करते हुए उनकी मुलाक़ात कई शायरों, नाटककारों और साहित्यकारों से हुई। इनमें से ही किसी ने गुलज़ार के पसंदीदा गीतकार शैलेन्द्र तक उन्हें पहुँचा दिया। इसी तरह उनकी मुलाक़ात संगीतकार एसडी बर्मन से भी हुई। बर्मन दा उस समय ‘बंदिनी’ फिल्म के लिए काम
कर रहे थे। शैलेन्द्र की सिफारिश पर गुलज़ार को एक गीत दे दिया गया। महताब की रौशनी की तरह उनकी प्रतिभा ने खुद ही अपना परिचय दे दिया और जीवन का पहला गीत मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे/ छुप जाऊंगी रात ही में, मोहे पी का संग दई दे.. मिला । साल था 1963 का। ख़ास बात यह थी कि गुलज़ार के सबसे पहले गीत को ही स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर की आवाज़ मिली। फिर इसके बाद उन्हें
कभी पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। प्रसिद्ध गीतकार, कवि, पटकथा लेखक, फ़िल्म निर्देशक तथा नाटककार न जाने कितनी ही भूमिकाओं में एक से एक नायब शाहकार रचते हुए गुलज़ार शोहरत के उस मुक़ाम तक जा पहुँचे हैं कि उनकी तारीफ़ आफ़ताब को दिए दिखाने बराबर है।

मई 15, 1973 को अभिनेत्री राखी-गुलज़ार ने साथ जीने-मरने की कसमें खाईं, लेकिन 3 साल में ही कसमों की ये डोर टूट गई और दोनों अलग हो गए। इस बीच एक बेटी मेघना उनकी ज़िन्दगी में आई। प्यार से गुलज़ार ने उसे बोस्की नाम दिया। बरसों से अलग-अलग रह रहे पति-पत्नी, राखी-गुलज़ार के बीच फ़िलवक़्त बोस्की ही एक कड़ी है। गुलज़ार अपने एकाकीपन को ख़ामोशी से जीने के साथ-साथ इस एहसास को लफ़्ज़ों का पैरहन ओढ़ाकर नए-नए शाहकार रच रहे हैं।

ऐ ज़िन्दगी गले लगा ले
हमने भी , तेरे हरेक रंग को
गले से लगाया है …है ना… पर ज़माने रंगों को अपनी ज़िन्दगी से विदा कर सफ़ेद पैरहन को जिस्म पर सजाए गुलज़ार मानो शायरी का ताजमहल बन गए हैं।

इमरोज़ और साहिर से परे अमृता

 

इमरोज़ और साहिर से परे अमृता



आज से 100 साल पहले ऊपरवाले ने  इसी दिन जब अमृता के रूप एक नज़्म को जमीन पर उतारा तो मानो अदब की ज़मीन की कोख़ में एक ऐसा बीज बोया जिसकी फ़सल से आज भी अदब की ज़मीन सरसब्ज़ है|

आज अमृता को उनके जन्मदिन पर याद करते हुए इमरोज़ और साहिर से परे अमृता की शख्सियत के कुछ पहलुओं को देखने की कोशिश करते हैं| साहिर के लिए अमृता और अमृता के लिए इमरोज़ का इश्क़ जगजाहिर है| इश्क़ की इस कशिश ने बिलाशुबह अमृता के लफ़्ज़ों में जो दर्द और तड़प पैदा की उसे दरकिनार नहीं किया जा सकता| पर अमृता केवल साहिर के बुझाई गई अधजली सिगरटों को उँगलियों में लेकर साहिर की छुअन को ही महसूस नहीं करती वह अनचाहे रिश्तों में बंधी नारी-मन के भीतर सुलगती आग को अपनी आवाज़ देती है|   उनकी उंगलियाँ केवल इमरोज़ की पीठ पर साहिर का नाम ही नहीं उकेरतीं बल्कि एक औरत के शरीर पर अनचाही छुअन से उसके मन में उपजे लिजलिजे अहसास को भी उसी शिद्दत के साथ उकेरती हैं|  अमृता की आवाज़ केवल इश्क़ की ही आवाज़ नहीं, उनकी आवाज़ स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर नारी मन के विचारों को एक नए फ़लक पर प्रस्तुत करती है|

विभाजन  के दंश को झेलने वाली अमृता ने उन हज़ारों लाखों औरतों बच्चियों की तकलीफों को मानों अपने दिल के लहू से कागज़ पर उतरा है| वे औरतें जिनका बलात्कार हुआ, जिनके बच्चों को उनकी आँखों के आगे क़त्ल कर दिया गया| तब लाहौर से भारत आते हुए एक कागज़ के पुरज़े पर उस दर्द को लिखते हुए अमृता “'अज्ज आखां वारिस शाह नूँ' हीर की पीड़ा को लिखने वाले वारिस शाह से पूछती हैं आज जब इतनी हीरें रो रही हैं तो तुम अपनी कब्र से उठ कर कुछ क्यों नहीं कहते” अमृता की यह कविता आज भी वारिस शाह की मज़ार पर गाई जाती है|

चाहे पिंजर की पूरो की पीड़ा हो जिसे विभाजन के दौरान हुए दंगों में अगवा करके उससे निकाह कर लिया जाता है| पूरो को जबरदस्ती की शादी से हुए गर्भ को अनचाहे ही ढोना पड़ता है| पूरो जब अपनी ही जैसी एक लड़की को उसके अपनों तक पहुँचा देती है तब उसे लगता है कि मानो उसका जीवन सफल हुआ| चाहे प्यार के लिए किसी शर्त को बंधन मानने वाली कादंबरी, जो बिना शर्त प्यार करती है पर  प्यार के लिए शर्त रखने वाले से खुद किनारा करने की हिम्मत भी रखती है| अमृता के उपन्यास ‘धरती, सागर ते सीपियाँ’ की इस किरदार को ‘कादंबरी’ नाम से सत्तर के दशक में बनी फिल्म में शबाना आज़मी ने बखूबी निभाया|

“दुखांत यह नहीं होता कि ज़िंदगी की लंबी डगर पर समाज के बंधन अपने कांटे बिखेरते रहें और आपके पैरों से सारी उम्र लहू बहता रहे .......दुखांत यह होता है कि आप लहू-लुहान पैरों से एक उस जगह पर खड़े हो जाएं, जिसके आगे कोई रास्ता आपको बुलावा न दे|” – अमृता के ये शब्द उनके उदासियों से भरे जीवन में भी उनकी जिजीविषा और हिम्मत के परिचायक हैं| छोटी से उम्र में माँ की मौत, एक असफल शादी, साहिर से असफल प्रेम सम्बन्ध और फिर इमरोज़ के इश्क़ का पड़ाव .... जीवन के  अनेक अँधेरे-उजले गलियारों से गुज़रते हुए अमृता हारी नहीं|

घर की चारदीवारी में खुद को कैद किए औरतों के लिए अपने ख्वाब, निराश वृद्धों के लिए अपने ठहाके, सीमा पर शहीद हुए सैनिक की बेवा के लिए अपने रंग, शायरों के लिए अपने आँसू, बेटी को पढने के लिए जिस्म बेचने वाली वेश्या के लिए अपना मान, और युवाओं को अपना आक्रोश -  ऐसी वसीयत सिर्फ अमृता ही कर सकती हैं –

अपने पूरे होश-ओ-हवास में
लिख रही हूँ आज
मैं वसीयत अपनी

मेरे मरने के बाद
खंगालना मेरा कमरा
टटोलना, हर एक चीज़
घर भर में, बिन ताले के
मेरा सामान.. बिखरा पड़ा है

दे देना... मेरे खवाब
उन तमाम.. स्त्रियों को
जो किचेन से बेडरूम
तक सिमट गयी.. अपनी दुनिया में
गुम गयी हैं
वे भूल चुकी हैं सालों पहले
खवाब देखना !

बाँट देना.. मेरे ठहाके
वृद्धाश्रम के.. उन बूढों में
जिनके बच्चे
अमरीका के जगमगाते शहरों में
लापता हो गए हैं !

टेबल पर.. मेरे देखना
कुछ रंग पड़े होंगे
इस रंग से ..रंग देना उस बेवा की साड़ी
जिसके आदमी के खून से
बोर्डर रंगा हुआ है
तिरंगे में लिपटकर
वो कल शाम सो गया है !

आंसू मेरे दे देना
तमाम शायरों को
हर बूँद से
होगी ग़ज़ल पैदा
मेरा वादा है !

मेरा मान , मेरी आबरु
उस वैश्या के नाम है
बेचती है जिस्म जो
बेटी को पढ़ाने के लिए

इस देश के एक-एक युवक को
पकड़ के
लगा देना इंजेक्शन
मेरे आक्रोश का
पड़ेगी इसकी ज़रुरत
.
क्रांति के दिन उन्हें !

दीवानगी मेरी
हिस्से में है
उस सूफी के
निकला है जो
सब छोड़कर
खुदा की तलाश में !

बस !
बाक़ी बची
मेरी ईर्ष्या
मेरा लालच
मेरा क्रोध
मेरा झूठ
मेरा स्वार्थ
तो
ऐसा करना
उन्हें मेरे संग ही जला देना...!!!

 

जनाक्रोश की जलती मशाल – दुष्यंत

 

जनाक्रोश की जलती मशाल – दुष्यंत

गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में

सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये|

जिसने अपनी कलम को तलवार बनाकर उसे तानाशाही, सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं से जलते अपने दिल के लहू में डुबोकर लोगों के भीतर दबी आग को हवा दी, वह कवि जिसकी आवाज़ सैकड़ों हजारों आन्दोलनों की आवाज़ बनी, वह जिसकी गज़लें समय सीमा के चक्र को तोड़ कालजयी हो गईं ... आज हम हिंदी साहित्य के हस्ताक्षर उस महान कवि, कथाकार, गज़लकार को अपनी श्रद्धांजलि देते हैं जिनका नाम हमेशा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा – कवि दुष्यंत|

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,

मेरा मकसद है की ये सूरत बदलनी चाहिए|

जिनकी कलम का उद्देश्य ही देश और समाज का सूरत-ए-हाल बदल उसे बेहतरी की तरफ ले जाना था ऐसे थे  दुष्यंत कुमार त्यागी अर्थात् कवि दुष्यंत| हिंदी ग़ज़ल को महबूबा की जुल्फों के जाल से निकाल कर सामजिक अन्याय के विरुद्ध आक्रोश की आवाज़ बना देने वाले कवि दुष्यंत की आज यानि 1 सितम्बर को जन्म-जयंती है| कवि की पुस्तकों में जन्मतिथि 1 सितंबर 1933 लिखी है, किन्तु दुष्यन्त साहित्य के मर्मज्ञ विजय बहादुर सिंह के अनुसार कवि की वास्तविक जन्मतिथि 27 सितंबर 1931 है। कवि की पुस्तकों में जन्मतिथि 1 सितंबर 1933 लिखी है, किन्तु दुष्यन्त साहित्य के मर्मज्ञ विजय बहादुर सिंह के अनुसार कवि की वास्तविक जन्मतिथि 27 सितंबर 1931 है। फिलहाल हम कवि दुष्यंत द्वारा दी गई जन्मतिथि को सही मानते हुए आज के दिन कलम के इस सच्चे सिपाही को अपने भाव सुमन अर्पित करते हैं|

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए

मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है|

"दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है। " – निदा फ़ाज़ली का यह कथन दुष्यंत की रचनाओं के कथ्य की पृष्ठभूमि की स्पष्ट करती है|

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है|


इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है |

 

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है


रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।

नसों में खौलते लहू को कलम से उगलने वाले  दुष्यंत की ग़ज़लों के अश’आर कहीं मुहावरे और कहावतें बन कर लोगों की जुबां पर सजे तो कहीं आन्दोलनों में जन-आक्रोश के पैरोकार बने| युवाओं की आवाज़ बन कहीं मंच पर सजे तो कहीं नुक्कड़ नाटकों में जन-चेतना की आवाज़ बने|

आपात काल के दौरान सरकारी नौकरी में रहते हुए हुए भी सरकारी तानाशाही के खिलाफ लिखने का परिणाम उन्हें भुगतना पड़ा और वे सरकारी कोप के भाजन बने|

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

पर अपनी जर्जर नाव के सहारे ही वे तूफानों से टकराते रहे| ग़ज़लों-संग्रह ‘साए में धूप’ उनके जीवन (जन्म-1933, मृत्यु-1975) की आख़िरी पुस्तक है| ज़िन्दगी की हर लड़ाई, आक्रोश, सामाजिक चेतना, पीड़ा से परिपक्व ग़ज़लों से सजी यह पुस्तक हर ग़ज़ल प्रेमी को अवश्य पढ़नी चाहिए| 

 

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है,

चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।

और वास्तव में मात्र 44 वर्ष की आयु में  30 दिसंबर 1975 की रात्रि में क्रांति की मशाल का यह प्रणेता इस दुनिया को अलविदा कह गया परन्तु उसके शब्दों की मशाल आज भी जल रही है और करोड़ो युवाओं के रक्त में चेतना की ज्वाला बन जल रही है|

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

राधाष्टमी

 


श्री राधा जी के नाम के बिना कान्हा का नाम अधूरा है | श्री कृष्ण के नाम को सम्पूर्ण करती इस सृष्टि में प्रेम का संचार करने के लिए बरसाने में प्रकटी श्री राधे का जन्म दिन आज यानि भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनाया जा रहा है|

सोलह कला सम्पूर्ण श्री कृष्ण भी जिन राधिका जी के रूठने पर व्याकुल हो उन्हें मनाने का हर यत्न करते हैं | कभी हाथ जोड़ तो कभी मृदु वचन कहकर राधा जी को मनाने में असफल होकर तीन लोकों का ताप हरने वाले श्री कृष्ण अपनी बात कहने के लिए कभी कदम्ब के पुष्प तो कभी गौसुत को अपना हरकारा बना राधा जी के पास भेजते हैं| राधा जी के नाम मात्र से ही मुदित हो जाने वाले मुरारी अपनी प्राण-वल्लभा श्री राधे के बिन स्वयं को अपूर्ण मानते हैं -
मानत ना वृषभानुसुता कर जोरि मना उन माधव हारे|
पाँव गहे, मृदु बैन कहें किसना अपनाय अनेक सहारे|
पुष्प कदम्ब चिरौरि करै अरु गोसुत कातर नैन निहारे|
ताप तिलोक हरें हरि जो निज खातिर ढूँढ रहे हरकारे||
अंततः जब राधा जी को मनाने का अन्य कोई उपाय न दिखा तो सारे विश्व को अपने एक इशारे से संचालित करने वाले श्री कृष्ण स्वयं राधा जी का रूप धारण कर उन्हें रिझाते हैं-
धरा आज कान्ह जी ने, राधा जी का रूप।
राधा कान्हा हैं बनी, लीला अजब अनूप।।
लीला अजब अनूप, घाघरा कंचुकि धारी।
बंसी धर अधरान, बनी राधा बनवारी।।
लीलाधर ने अद्भुत, कैसा ये स्वांग भरा।
हरषाए सब देव, मुस्काय हो मुदित धरा।।
वस्तुतः राधा-कृष्ण दो अलग स्वरूप नहीं वरन एक ही हैं
वहीं वृषभानुसुता मोहन-प्यारी श्री राधे का नाम लेने मात्र से ही मनुष्य के समस्त काज साध जाते हैं| मोहन से एकरूप होने के लिए श्री राधा कृष्ण का रूप धर कृष्णमय हो जाती हैं| गौर वर्ण पर पीताम्बर धर, हाथ मुरली और माथे मोर पंख धर मोहन की मोहक छवि में राधा की सुन्दर छवि के सम्मुख पूनम का चाँद भी आधा नज़र आता है -
रूप गहा जब माधव का पट पीत धरा तन नागरि राधा|
वेणु गही कर, श्याम छवी धर मोहक पाश बिछाकर बाँधा|
श्याम सलौनि छवी निरखी जब पूनम चाँद लगे अब आधा|
मोहन प्यारि, कृपा जिन पाकर, कौन सा काज नहीं कब साधा||
राधा का जन्म कृष्ण के साथ सृष्टि में प्रेम भाव मजबूत करने के लिए हुआ था. कुछ लोग मानते हैं कि राधा एक भाव है, जो कृष्ण के मार्ग पर चलने से प्राप्त होता है. वैष्णव तंत्र में राधा और कृष्ण का मिलन ही व्यक्ति का अंतिम उद्देश्य माना जाता है|
राधा- कृष्ण का प्रेम तो त्याग-तपस्या की पराकाष्ठा है। अगर 'प्रेम' शब्द का कोई समानार्थी है तो वो राधा-कृष्ण है। प्रेम शब्द की व्याख्या राधा-कृष्ण से शुरू होकर उसी पर समाप्त हो जाती है। राधा-कृष्ण की प्रीति से समाज में प्रेम की नई व्याख्या, एक नवीन कोमलता का आविर्भाव हुआ। समाज ने वो भाव पाया, जो गृहस्थी के भार से कभी भी बासा नहीं होता। राधा-कृष्ण के प्रेम में कभी भी शरीर बीच में नहीं था। जब प्रेम देह से परे होता है तो उत्कृष्ट बन जाता है और प्रेम में देह शामिल होती है तो निकृष्ट बन जाता है।
'राधामकृष्णस्वरूपम वै, कृष्णम राधास्वरुपिनम;
राधाष्टमी पर जो भी सच्चे मन और श्रद्धा से राधा की आराधना करता है, उसे जीवन में सभी सुख-साधनों की प्राप्ति होती है

खुद से जंग (लघुकथा)

 

खुद से जंग


एक आईने के बाहर वह  , एक आईने के अन्दर वह – उस कमरे में एक अनोखी जंग चल रही थी|

आईने के बाहर से दुनिया की नज़र से खुद को देखती वह , आईने के अन्दर से अपने अंतर्मन से खुद को परखती वह  ..

आज फिर एक बार लड़केवालों की मनाही के बाद घर में तूफ़ान उठा था| दादी ने कोसा, भाभी ने फिर ताने दिए, पापा सिर पकड़े बैठे थे और माँ रो-रोकर उस दिन को कोस रही थी जिस दिन वह काली लड़की जन्मी थी ... वह यानी कृष्णा ... उम्र 28 साल  

काली, नहीं तो , हाँ थोडा गहरा रंग ज़रूर है पर दुनिया को तो दूध-सा चिट्टा रंग ही चाहिए| |

"थोडा रंग साफ होता तो अपनी गृहस्थी लिए बठी होती, हमारी छाती पर मूँग न दल रही होती अभी तक, इससे तो अच्छा होता कि पैदा होते ही .....” – दादी की जुबान से उगलते ज़हर ने उसके दिलो-दिमाग को जला दिया|  सबकी परेशानी को एक बार में ही दूर करने का निश्चय किए कृष्णा ने धाड़ से दरवाज़ा बंद किया और उसी से पीठ टिका ज़मीन पर बैठी अपनी फटी-फटी आँखों से न जाने कितनी देर गरम लावा बहाती रही|

रोज़-रोज़ के इस कलेश को जड़ से ख़त्म करने का निश्चय लिए एक हाथ में दुपट्टा लिए पंखे की ऊँचाई का अनुमान लगाते-लगाते , अपने निर्णय को अमली जामा पहनाने पहले न जाने क्यों वह आईने के आगे ठिठक गई |

आइने के बाहर की कृष्णा ने आईने के अन्दर के अक्स को देख मुँह बिचकाया –

“तुम्हें पता है ना कि यह दुनिया तुम्हारे जैसी काली लड़कियों के लिए नहीं है, फिर क्यों अपने माँ-बाप पर बोझ बनी हुई हो ? हल्का करो उनका बोझ!

“पर आईने के अन्दर से अपने अंतर् की दृष्टि से स्वयं को देखती कृष्णा ने प्रतिकार किया – क्यों! किसी और की सोच के लिए मैं क्यों मरुँ?  उन्हें मेरी सुन्दरता नहीं दिखती तो यह उनका दोष है, उनके दोष के लिए खुद को सज़ा ... आखिर क्यों?”

“तेरी सुन्दरता” .... ज़माने की नज़र से खुद को देखती कृष्णा ने व्यंग्य से हँसते हुए कहा... “किस सुन्दरता की बात करती है ... यह पक्का रंग, नैन-नक्श भी साधारण ही हैं , ऊपर से यह कद .. किस चीज़ को सुन्दर मानती है तू?”

आईने के भीतर की कृष्णा ज़माने की सोच के इस कठोर प्रहार से घबरा कर कुछ पल को मौन रह गई ... कुछ पल सिर झुकाए खड़े रहने के बाद उसने फिर हिम्मत जुटाकर ऊपर देखा .. खुद की आँखों में आँखे डालते हुए बोली –“हाँ! सुन्दरता .. मेरे मन की सुन्दरता जो तुम्हें नज़र नहीं आती, और मैं भी तो पागल , तुम्हारे कहने से खुद को कुरूप मान बैठी| पेंटिंग, संगीत, अच्छी डिग्री, हर काम को सुघढ़ता से करने की काबिलियत ... कितने ही गुणों को मैंने सिर्फ ज़माने की रंग-रूप की कसौटी पर खरा उतरने के लिए पीछे धकेल दिया|”

ज़माने की सोच के हथियार से आईने के बाहर से फिर वार किया गया – “बाकी चीज़ों से पहले यही रंग-रूप तो दिखता है किसे नज़र आते हैं तेरे गुण तेरी योग्यता?”

इस बार आईने के भीतर से अंतर्मन ने पलटवार किया – “ किसे ? मत आने दो किसी को नज़र | पर अब मुझे खुद को दूसरों की नज़र से नहीं अपनी नज़र से देखना है| और अपनी नज़र में मैं सुन्दर हूँ| अब मुझे किसी के सर्टिफिकेट की ज़रूरत नहीं| नहीं चाहिए मुझे शादी के नाम पर किया गया ऐसा सौदा जिसमें मेरे मन से पहले मेरे तन को देखा जाए| जिसे मेरे गुण दिखाई नहीं देते ऐसा व्यक्ति मेरा जीवन साथी बनने लायक नहीं है|”

अपने साथ हुई जंग में आज कृष्णा का आत्मविश्वास जीत चुका था .. हाथ में लिए दुपट्टे को एक और फेंकते हुए उसने मुस्कुराते हुए अपने बंद कमरे के दरवाज़े की कुंडी खोल दी| साथ ही उसने आत्मग्लानि की बेड़ियों में जकड़ी अपनी अंतरात्मा की बेड़ियाँ भी तोड़ डालीं और स्वाभिमान के आकाश में ऊंची उड़ान का निश्चय किए पूर्ण आत्मविश्वास से घर से निकल पड़ी|

शालिनी रस्तौगी

गुरुग्राम