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Friday, 25 September 2020

खुद से जंग (लघुकथा)

 

खुद से जंग


एक आईने के बाहर वह  , एक आईने के अन्दर वह – उस कमरे में एक अनोखी जंग चल रही थी|

आईने के बाहर से दुनिया की नज़र से खुद को देखती वह , आईने के अन्दर से अपने अंतर्मन से खुद को परखती वह  ..

आज फिर एक बार लड़केवालों की मनाही के बाद घर में तूफ़ान उठा था| दादी ने कोसा, भाभी ने फिर ताने दिए, पापा सिर पकड़े बैठे थे और माँ रो-रोकर उस दिन को कोस रही थी जिस दिन वह काली लड़की जन्मी थी ... वह यानी कृष्णा ... उम्र 28 साल  

काली, नहीं तो , हाँ थोडा गहरा रंग ज़रूर है पर दुनिया को तो दूध-सा चिट्टा रंग ही चाहिए| |

"थोडा रंग साफ होता तो अपनी गृहस्थी लिए बठी होती, हमारी छाती पर मूँग न दल रही होती अभी तक, इससे तो अच्छा होता कि पैदा होते ही .....” – दादी की जुबान से उगलते ज़हर ने उसके दिलो-दिमाग को जला दिया|  सबकी परेशानी को एक बार में ही दूर करने का निश्चय किए कृष्णा ने धाड़ से दरवाज़ा बंद किया और उसी से पीठ टिका ज़मीन पर बैठी अपनी फटी-फटी आँखों से न जाने कितनी देर गरम लावा बहाती रही|

रोज़-रोज़ के इस कलेश को जड़ से ख़त्म करने का निश्चय लिए एक हाथ में दुपट्टा लिए पंखे की ऊँचाई का अनुमान लगाते-लगाते , अपने निर्णय को अमली जामा पहनाने पहले न जाने क्यों वह आईने के आगे ठिठक गई |

आइने के बाहर की कृष्णा ने आईने के अन्दर के अक्स को देख मुँह बिचकाया –

“तुम्हें पता है ना कि यह दुनिया तुम्हारे जैसी काली लड़कियों के लिए नहीं है, फिर क्यों अपने माँ-बाप पर बोझ बनी हुई हो ? हल्का करो उनका बोझ!

“पर आईने के अन्दर से अपने अंतर् की दृष्टि से स्वयं को देखती कृष्णा ने प्रतिकार किया – क्यों! किसी और की सोच के लिए मैं क्यों मरुँ?  उन्हें मेरी सुन्दरता नहीं दिखती तो यह उनका दोष है, उनके दोष के लिए खुद को सज़ा ... आखिर क्यों?”

“तेरी सुन्दरता” .... ज़माने की नज़र से खुद को देखती कृष्णा ने व्यंग्य से हँसते हुए कहा... “किस सुन्दरता की बात करती है ... यह पक्का रंग, नैन-नक्श भी साधारण ही हैं , ऊपर से यह कद .. किस चीज़ को सुन्दर मानती है तू?”

आईने के भीतर की कृष्णा ज़माने की सोच के इस कठोर प्रहार से घबरा कर कुछ पल को मौन रह गई ... कुछ पल सिर झुकाए खड़े रहने के बाद उसने फिर हिम्मत जुटाकर ऊपर देखा .. खुद की आँखों में आँखे डालते हुए बोली –“हाँ! सुन्दरता .. मेरे मन की सुन्दरता जो तुम्हें नज़र नहीं आती, और मैं भी तो पागल , तुम्हारे कहने से खुद को कुरूप मान बैठी| पेंटिंग, संगीत, अच्छी डिग्री, हर काम को सुघढ़ता से करने की काबिलियत ... कितने ही गुणों को मैंने सिर्फ ज़माने की रंग-रूप की कसौटी पर खरा उतरने के लिए पीछे धकेल दिया|”

ज़माने की सोच के हथियार से आईने के बाहर से फिर वार किया गया – “बाकी चीज़ों से पहले यही रंग-रूप तो दिखता है किसे नज़र आते हैं तेरे गुण तेरी योग्यता?”

इस बार आईने के भीतर से अंतर्मन ने पलटवार किया – “ किसे ? मत आने दो किसी को नज़र | पर अब मुझे खुद को दूसरों की नज़र से नहीं अपनी नज़र से देखना है| और अपनी नज़र में मैं सुन्दर हूँ| अब मुझे किसी के सर्टिफिकेट की ज़रूरत नहीं| नहीं चाहिए मुझे शादी के नाम पर किया गया ऐसा सौदा जिसमें मेरे मन से पहले मेरे तन को देखा जाए| जिसे मेरे गुण दिखाई नहीं देते ऐसा व्यक्ति मेरा जीवन साथी बनने लायक नहीं है|”

अपने साथ हुई जंग में आज कृष्णा का आत्मविश्वास जीत चुका था .. हाथ में लिए दुपट्टे को एक और फेंकते हुए उसने मुस्कुराते हुए अपने बंद कमरे के दरवाज़े की कुंडी खोल दी| साथ ही उसने आत्मग्लानि की बेड़ियों में जकड़ी अपनी अंतरात्मा की बेड़ियाँ भी तोड़ डालीं और स्वाभिमान के आकाश में ऊंची उड़ान का निश्चय किए पूर्ण आत्मविश्वास से घर से निकल पड़ी|

शालिनी रस्तौगी

गुरुग्राम


 


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