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Tuesday, 28 April 2020

अंतर्मन और शरीर



मैं अंतर्मन तू  है शरीर
चंचल, चपल, विकल है तू, मैं गहन, धीर, गंभीर
मैं अंतर्मन, तू है  शरीर ....
तेरा सुख, इच्छाएँ तेरी, है अंतहीन कामना तेरी ,
अपनी मनमानी के आगे, सुनता भला तू कब मेरी,
तूने ही तो खींच रखी है, मध्य में यह अभेद्य प्राचीर|
मैं अंतर्मन, तू है  शरीर ....
मैं अपने में रहना चाहूँ, खुद को सुनना-गुनना चाहूँ,
क्यों शोर ये भीतर उठता है, प्रश्न का मैं उत्तर चाहूँ,
दुनिया के रव में पर निष्ठुर, तू कब सुनता है मेरी पीर |
मैं अंतर्मन, तू है  शरीर ....
मैं तुझमें हूँ, तू जग में है, झाँका मुझमें कब सोच भला,
तू दुनिया-सी करना चाहे, कब माना तूने मेरा कहा,
रहता कब मेरे वश में तू, हर पल व्याकुल, हर पल अधीर|
मैं अंतर्मन, तू है  शरीर ....

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