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Monday, 3 February 2014

उपेक्षित

देखा  है कभी
किसी दरख़्त को
जीवन का रस खो
ठूंठ में बदलते हुए
गर्वोन्मत्त शाखाएँ
जब एक एक कर होती हैं
हरित श्री से विहीन
कैसे होता है मान-मर्दन उसका

पीली पड़ती पत्तियां जब
छोड़तीं साथ एक-एक कर
कैसे पल-पल छीजता है
उसका अस्तित्व
जमीन छोड़ देती है
जब साथ जड़ों का
उभर आती हैं धरती की त्वचा पर
बुढ़ापे में उभरी नसों-सी
फिर भी न जाने
किस जिजीविषा से
अपनी कंपकपाहट को टाँगों में समेट
खड़ा रहता है मूक दर्शक बन
परिवार के उपेक्षित वृद्ध सम
मानो पूछता हो
हमेशा दिया ही तुमको
क्या माँगते हुए 
देखा है कभी





11 comments:

  1. ..गहन भाव लिए बहुत ही सुंदर भवाभिव्यक्ति ....आग्रह है-- हमारे ब्लॉग पर भी पधारे
    शब्दों की मुस्कुराहट पर ....दिल को छूते शब्द छाप छोड़ती गजलें ऐसी ही एक शख्सियत है

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  2. भावुक कर देने वाली रचना . कुछ न माँगने पर भी उपेक्षित जीवन जीना पड़े तो कैसा लगता होगा .

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  3. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, माँ सरस्वती पूजा हार्दिक मंगलकामनाएँ !

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  4. एक दरख़्त के ज़रिये इन्सान की कहानी कहती एक लाजवाब पोस्ट |

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  5. बहुत सुंदर प्रस्तुति...!

    बसंतपंचमी की हार्दिक शुभकामनाऐ
    RECENT POST-: बसंत ने अभी रूप संवारा नहीं है

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  6. This comment has been removed by the author.

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  7. वाह ! अनुपम प्रस्तुति शालिनी जी ! एक वृद्ध वृक्ष का सटीक मानवीकरण किया है आपने ! बधाई स्वीकार करें !

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  8. sundar prastuti ... jiwan ke katu stya ko pribhashit krti huyi :)

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  9. बहुत सुंदर प्रस्‍तुति‍...

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