Pages

Sunday, 23 September 2012

आत्ममुग्धा


उस दिन 
साथ चलते-चलते
छू गया था जब
हाथ तुम्हारा
मेरे हाथ से
कपोलों पर मेरे 
बिखर गया 
सिन्दूर
प्राची ने समेट जिसे
अपनी माँग में सजाया
और साथ-साथ मेरे प्रकृति भी 
हो उठी थी
अरुणिम

हृदय हर्षाया 
तन की पुलक से
हरियाई थी दूब
भावों का अतिरेक 
जल कण बन 
नयन से टपका
और ओस बन ठहर गया
तृण नोक पर

स्पंदित हृदयतंत्री के तार 
झंकृत हो उठा 
संसार 
कुछ न कह कर
सब कुछ कहते 
लरजते होंठ खुले
और
मूक अधरों का 
मुखरित मौन 
कलरव बन फ़ैल गया
चहुँ ओर 
कितने ही भाव 
अनगिनत रंगों के 
उपजे उस पल 
और छिटक गए 
फूल, तितली, इन्द्रधनुष बन 

रंगों की अद्भुत होली 
देख सोचती
मुग्धा मैं
क्या मैंने ही इस प्रकृति को 
कर डाला 
रंगीन ......



16 comments:

  1. एक और प्रेम सरोवर में लिप्त, बेहतरीन रचना.
    मनमोहक ये दिलकश रचना मन में उतरी जाए
    गद - गद हुआ है ह्रदय, खुशबू कुछ ऐसी आए.

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार अरुण जी!

      Delete
  2. बहुत ही बढ़िया मैम!

    सादर

    ReplyDelete
  3. बहुत खूब .. प्राकृति या प्रेम का भाव .. कुछ तो है जो रंगीन कर गया ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. प्रेम के रंग प्रकृति पर छिटक कर उसे और रंगीन कर देते हैं..... धन्यवाद दिगंबर जी!

      Delete
  4. बहुत सुन्दर.....
    बेहद रूमानी एहसास.....
    अनु

    ReplyDelete
  5. कोमाल और प्यारे एहसास से लबरेज रचना ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद संगीता जी!

      Delete
  6. स्पंदित हृदयतंत्री के तार
    झंकृत हो उठा
    संसार
    कुछ न कह कर
    सब कुछ कहते
    लरजते होंठ खुले
    और
    मूक अधरों का
    मुखरित मौन
    कलरव बन फ़ैल गया
    ....
    bahut khubsurat ban pade ye shabd...
    bahut behtareen...
    abhaar..

    ReplyDelete
  7. वाह ... बहुत ही बढिया।

    ReplyDelete
  8. वाह....बहुत खूब।

    ReplyDelete
    Replies
    1. इमरान जी ...बहुत बहुत शुक्रिया!

      Delete

आपकी टिप्पणी मेरे लिए अनमोल है.अगर आपको ये पोस्ट पसंद आई ,तो अपनी कीमती राय कमेन्ट बॉक्स में जरुर दें.आपके मशवरों से मुझे बेहतर से बेहतर लिखने का हौंसला मिलता है.