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Saturday, 11 August 2012

बहुत बोलते हैं ये लब


माना
बहुत बोलते हैं ये लब
लफ्ज़-ब-लफ्ज़
कभी
राज-ए-दिल भी खोलते हैं
ये लब
पर
ज़रूरी तो नहीं
हर बार बयाँ कर पायें लब
लिख पाए कलम
फ़साना-ए-जिंदगी

कितने वाकयात, कितने ख्यालात
गुज़र जाते हैं
सीधे दिल से
थरथराते रह जाते हैं लब
खामोश रह जाती कलम

कहानी कहाँ हर बार
कागज़ पे उतर
जज़्बात
नक्श-ब-नक्श
उकेर पाती है

न जाने कितनी ही बार
आरजू
सीने में दफ़न
पल पल घुटती
दम तोड़ जाती हैं 

8 comments:

  1. सच कहा...कई आरजूएँ कई तमन्नाएँ कई जज़्बात दम तोड देते हैं भीतर ही.

    सुन्दर रचना
    अनु

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  2. सच कहा हर बार
    न लफ्ज़ कह पाते है ना कलम लिख पाती है..
    और कितनी ही बाते दबी होती है सीने में..
    कोमल भावो की सहज अभिव्यक्ति..

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  3. कहानी कहाँ हर बार
    कागज़ पे उतर
    जज़्बात
    नक्श-ब-नक्श
    उकेर पाती है.... मन के चक्रवात में घूमती है कई कहानियाँ अपने सत्य के साथ ...

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    Replies
    1. बिल्कुल सही कहा रश्मि जी.
      साभार

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  4. बहुत गहन और सुन्दर है पोस्ट।

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