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Tuesday, 22 May 2012

अब छोड़ भी दे, मन

बहुत हुआ
अब छोड़ भी दे, मन  
              
तृष्णा की डोर से बंधी 
आस की मृगी को 
मुक्त कर बंधन से 
 मृगमरीचिका में भटकती 
इस व्याकुल उलझन को 
अब छोड़ भी दे, मन 


कहाँ, कितना और कब तक 
यूँही बेमकसद भटकेगा 
नागफनी सी उगती 
कामनाओं के जंगल में 
लहूलुहान हो
कहाँ-कहाँ सर पटकेगा 
बेबसी के पिंजरे को 
अब खोल भी दे मन .


अनंत विस्तार है 
अथाह गहराई
न कोई ओर, न कोई छोर 
धुंधलके में फिरते सायों सी
पल पल बनता मिटता वजूद 
कब तक दौड़ेगा इन छलावों  के पीछे 
झूठ-मूठ के भ्रमों को 
अब तोड़ भी दे मन  







39 comments:

  1. 'बेबसी के पिंजरे को
    अब खोल भी दे मन .'

    सुन्दर बात कही मन से...
    मान ले मन तो क्या बात हो!

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    1. बस ये मन ही तो बस में नहीं आता...... रचना पर ध्यान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, अनुपमा जी!

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  2. Sach hai ... Jo Bhi hai apne andar hi hai ... Chalave bas bhatkav ko aur badaa dete hai .. Gahri rachna ...

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    1. और इन्ही छलावों के बीच भटकते बीत जाता है जीवन....... धन्यवाद दिगंबर जी,

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  3. कहाँ-कहाँ सर पटकेगा
    बेबसी के पिंजरे को
    अब खोल भी दे मन .... गहरी सोच
    सादर
    पुनश्चः........
    शनिवार 26/05/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. आपके सुझावों का स्वागत है .

    धन्यवाद!

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    1. यशोदा जी , हलचल में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार!

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  4. बहुत खूब मैम!


    सादर

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    1. धन्यवाद यशवंत जी!

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  5. कहाँ, कितना और कब तक
    यूँही बेमकसद भटकेगा
    नागफनी सी उगती
    कामनाओं के जंगल में
    लहूलुहान हो
    कहाँ-कहाँ सर पटकेगा
    बेबसी के पिंजरे को
    अब खोल भी दे मन ... थोड़ा जी ले ओ मन

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    1. धन्यवाद रश्मि जी!

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  6. अनंत विस्तार है
    अथाह गहराई
    न कोई ओर, न कोई छोर
    धुंधलके में फिरते सायों सी
    पल पल बनता मिटता वजूद
    कब तक दौड़ेगा इन छलावों के पीछे
    झूठ-मूठ के भ्रमों को
    अब तोड़ भी दे मन
    कभी ऐसा भी सोच ही लेता है मन ... बहुत अच्‍छा लिखा है आपने

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  7. बहुत ही सुन्दर कोमल से भाव
    सुन्दर प्रस्तुती....

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  8. कहाँ, कितना और कब तक
    यूँही बेमकसद भटकेगा
    नागफनी सी उगती
    कामनाओं के जंगल में
    लहूलुहान हो
    कहाँ-कहाँ सर पटकेगा
    बेबसी के पिंजरे को
    अब खोल भी दे मन .

    वाह ,,,, बहुत अच्छी प्रस्तुति,,,,

    RECENT POST काव्यान्जलि ...: किताबें,कुछ कहना चाहती है,....

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    1. धन्यवाद धीरेन्द्र जी!

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  9. कहाँ, कितना और कब तक
    यूँही बेमकसद भटकेगा
    नागफनी सी उगती
    कामनाओं के जंगल में
    लहूलुहान हो
    कहाँ-कहाँ सर पटकेगा
    बेबसी के पिंजरे को
    अब खोल भी दे मन .

    निः शब्द हूँ|ऐसा लग रहा है मेरी भावनाओं को उकेर कर रख दिया हो...बहुत सुन्दर....

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    1. स्वाति जी, ऐसे ही पता नहीं कब और कैसे मन कि डोर किसी से बांध जाती है , जब कोई हमख्याल मिल जाए तो उसके शब्द अपने से लगाने लगते हैं.... प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद!

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  10. मन को समझना कहां आसान है.. कब किधर को जाएगा, कुछ पता नहीं। उसे बंधन में रखना आसान नहीं

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    1. मैं आपसे बिलकुल सहमत हूँ दीपिका जी!

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  11. भ्रम टूट ही जाये तो अच्छा ...बेहतरीन रचना

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  12. कहाँ, कितना और कब तक
    यूँही बेमकसद भटकेगा
    नागफनी सी उगती
    कामनाओं के जंगल में
    लहूलुहान हो
    कहाँ-कहाँ सर पटकेगा
    बेबसी के पिंजरे को
    अब खोल भी दे मन .

    .... व्याकुल मनको बस धीर ही तो नहीं मिलता .......बहुत सुन्दर शालिनीजी

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  13. बहुत सुन्दर लिखा ...कब तक छलावे के पीछे भागता रहेगा मन ....जब ये बात मन समझ ले तो जीने का मजा कुछ और बढ़ जाए

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    1. बस ये मन ही है सब कुछ समझाने पर भी अपने ही भ्रमों में भटकते रहना चाहता है ...... बहुत बहुत धन्यवाद राजेश जी!

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  14. कहाँ, कितना और कब तक
    यूँही बेमकसद भटकेगा
    नागफनी सी उगती
    कामनाओं के जंगल में
    लहूलुहान हो
    कहाँ-कहाँ सर पटकेगा

    वाह.....बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ .....शानदार ।

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    1. शुक्रिया इमरान जी!

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  15. बहुत खूब....खुद से पहचान करवाती रचना ....!

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  16. मन की परिभाषा को आपने बेहद खूबसूरती से प्रस्तुत किया है! शालिनी जी

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    1. धन्यवाद संजय ....... बस प्रयास किया है नहीं तो मन को समझना ही मुश्किल है ...उसकी परिभाषा और भाषा तो इश्वर ही जाने.

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  17. भ्रम बना रहे .....

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    1. सतीश जी, ये भ्रम बना ही रहता है...हज़ार समझाने पर भी ये मन अपने भटकाव के लिए नए रस्ते और नयी वजह ढूंढ ही लेता है.

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    2. व्यस्त रहे मन , यही कामना है !

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  18. हलचल में स्थान देने के लिए हार्दिक आभार, संगीता जी!

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  19. इस व्याकुल उलझन को
    अब छोड़ भी दे, मन ..... bahut sundar vichaar, par man ki uljhano ki gaathe kaha khul paati hain, kaha chodi jaati hain....bahut hi achi rachna hai

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद!

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  20. नागफनी सी उगती
    कामनाओं के जंगल में
    लहूलुहान हो
    कहाँ-कहाँ सर पटकेगा
    बेबसी के पिंजरे को
    अब खोल भी दे मन .

    सुंदर सृजन....
    सादर बधाई।

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    1. धन्यवाद, संजय मिश्र जी.

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  21. बहुत ही सुंदर भाव और दिल को छूती अभिव्यक्‍ति ! बधाई शालिनी जी !

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    1. धन्यवाद सुशीला जी!

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