मसरूफियत के इस दौर में यारों!
दोस्ती भी इतनी आसान नहीं होती .
सामना भी हो जाए गर कभी तो
नज़रें मिलती हैं पर बात नहीं होती .
दूसरों से शिकायत क्या करें ,
क्या करें न मिलने का शिकवा.
अब तो हालात ये हैं कि अपनी भी,
खुद से ही मुलाकात नहीं होती.
कौन सुने औरों के अफ़साने
वो किस्सागोई, वो यारों की मजलिस
यहाँ दिमाग दिल की नहीं सुनता
और दिल की दिमाग से गुफ्तगूं नहीं होती .
♥
ReplyDeleteआपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
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ReplyDeleteआदरणीया शालिनि जी
सस्नेहाभिवादन !
बहुत सुंदर है आपका ब्लॉग और आपकी रचनाएं …
:)
प्रस्तुत रचना में आपने अपनी बात बहुत उस्तादाना ढंग से कही है -
कौन सुने औरों के अफ़साने
वो किस्सागोई, वो यारों की मजलिस
यहां दिमाग दिल की नहीं सुनता
और दिल की दिमाग से गुफ्तगूं नहीं होती .
वाह !
क्या बात है !
बधाई और शुभकामनाओं सहित
-राजेन्द्र स्वर्णकार
धन्यबाद राजेन्द्र जी , आपके उत्साहवर्द्धन से हौंसला प्राप्त हुआ .
ReplyDelete"
ReplyDeleteकौन सुने औरों के अफ़साने
वो किस्सागोई, वो यारों की मजलिस
यहाँ दिमाग दिल की नहीं सुनता
और दिल की दिमाग से गुफ्तगूं नहीं होती "
वाह जी ! क्या बात है ! बहुत खूब !