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Friday, 30 September 2011

अहल्या







एक ऐसी स्त्री की गाथा जिसे संसार ने पाषाण समझ लिया ... वह स्त्री जिसका दोष न होने पर भी उसे पति द्वारा शापित हो वर्षों का एकांतवास झेलना पड़ा ..... समाज के लांछन व पति की उपेक्षा की  झेलती वह अहल्या पत्थर के सामान हो गई 

उसी के बारे में मेरे कुछ उदगार .........


अहल्या
हाँ ,पाषाण नहीं थी वो
श्वास , मद्धम ही सही
चलती तो थी
ह्रदय में हल्का ही सही
स्पंदन तो था
फटी-फटी सी आँखों में भी
एक मौन क्रंदन था......
हाँ,
पाषाण नहीं थी वो.......

खाली दीवारों से टकराकर
जब लौट आती थी ध्वनि उसकी
निर्जन वन में गूँज गूँज
गुम जाती हर पुकार उसकी
धीरे धीरे भूल गए बोलना
मौन अधरों पर फिर भी
एक अनजान आमंत्रण था
हाँ,
पाषाण नहीं थी वो..........

रौंद गया एक काम -रुग्ण
उसकी गर्वित मर्यादा को
कुचला गया था निर्ममता से
उसकी निष्कलंक निर्मलता को
छटपटाती पड़ी रह गयी वह
बाण बिंधी हिरनी सी
चतुर व्याध के जाल में जकड़ी
अकाट्य जिसका बंधन था
हाँ
पाषाण नहीं थी वो ......

हा!      
समाज का कैसा न्याय
पीड़ित पर ही आरोप लगाये
था कौन व्यथा जो उसकी सुनता
अपनों ने भी जब   
आक्षेप लगाए
कितना पीड़ाहत उसका मन था
बतलाती वो क्या किसको
विह्वल चीखों पर भी तो
समाज का ही तो नियंत्रण था

हाँ
पाषाण नहीं थी वो ......

धीरे-धीरे सूख गया फिर 
भाव भरा मन का हर स्रोत  .
शुष्क हुए भावों के निर्झर 
रसहीन हृदय ज्यों सूखी ताल ,
दबा दिया फिर शिला  तले
हर कामना का नव अंकुर  .
साथ किसी का पाने की 
इच्छा का किया उसने मर्दन था 

हाँ
पाषाण नहीं थी वो ......

चहुँ ओर से जब मिट गई 
आशा की क्षीणतम ज्योति भी 
हर मुख पर फ़ैल गई जब 
विरक्तता की अनुभूति  सी 
हर पहचान मिटा कर अपनी 
कर लिया स्वयं को पाषण समान 
पर उसके अंतस में ही
हाँ 
धधक रहे थे उसके प्राण 
निराशा के छोरों के मध्य 
मन करता उसका अब दोलन था 

हाँ
पाषाण नहीं थी वो ......

हुई राममय ,
रमी राम में ,
राम भरोसे सब तज डाला .
नहीं किसी से कुछ भी आशा 
अब और नहीं कुछ संबल था 

तप की चिता में तप-तप 
तन उसका हुआ जैसे कुंदन था 
हाँ
पाषाण नहीं थी वो ......


नहीं सुनी दुनिया ने उसकी
करुण कथा पर दिए न कान 
कोई समझे या न समझे 
पर समझे वो दयानिधान  
करुणा कर, करुनानिधान ने 
किया कलुष सब उसका दूर 
निज निर्मल स्पर्श से उसका 
शाप  कर दिया पल में चूर 
शिला खंड में मानो जैसे 
लौट आये थे फिर से प्राण 
हाँ .......................अब पाषण नहीं थी वो 














Friday, 23 September 2011

मसरूफियत.......



मसरूफियत के इस दौर में यारों!
दोस्ती भी इतनी आसान नहीं होती .
सामना भी हो जाए गर कभी तो 
नज़रें मिलती हैं  पर बात नहीं होती .


दूसरों से शिकायत क्या करें ,
क्या करें न मिलने का शिकवा.
अब तो हालात ये हैं कि अपनी भी,
खुद से ही मुलाकात नहीं होती.


कौन सुने  औरों के अफ़साने  
वो किस्सागोई, वो यारों की मजलिस 
यहाँ दिमाग दिल की नहीं सुनता
और दिल की दिमाग से गुफ्तगूं नहीं होती .

Sunday, 18 September 2011

हमारी हिंदी

      एक मित्र ने हिंदी बोलते समय कुछ अंग्रेजी शब्दो के प्रयोग पर कड़ी आपत्ति की, मन  को यह बात बहुत चुभी, हिंदी कोई मृत भाषा नहीं .....यह तो अत्यंत जीवंत भाषा  है जिसमें अनेक भाषाओँ के शब्दों को स्वयं में समाहित करने की क्षमता है ....अन्य भाषाओँ के  शब्दों को हटा दिया जाए हो हिंदी ही न बचे .......किसी भाषा से उसकी व्यावहारिकता का गुण छीनना एक अपराध है ...........

संस्कृत की गंगोत्री से निकली 
हिंदी गंगा की धारा
अमय रस से अपने 
जन- मन सिंचित कर डाला
सब को समाहित कर स्वयम् में
हुई विस्तृत इसकी धारा 
किसी भाषा ने  इसके 
प्रवाह में अवरोध न डाला,
फिर क्यों कुछ रूदियों में बांध कर 
इसकी गति में रोध हम डाले 
भाषा से सहजता का गुण छीन 
क्यों किलिष्ट उसे कर डाले

कितनी ही जलधाराओं को 
खुद में समेट
गंगा गंगा ही रहती है 
वैसे ही कुछ शब्दों के प्रभाव से 
हिंदी क्या हिंदी न रहती
तो
संकुचित  मानसिकता को त्यज 
भाषा को दें व्यावहारिक रूप 
सुन्दर है यह भाषा इतनी 
ना बनाएँ इसको दुरूह