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Monday, 4 July 2011

स्वेच्छाचारी विचार

लहरों की तरह मन में 
सर उठाते विचार
घन बीच तड़ित से
कौंधते बार बार.
सिरा पकड़ने की कोशिश में
हर बार हाथ से
सिकता ज्यों फिसल जाते
 जल में  मीन बन जाते
हाथ न आते विचार

एक  दूसरे  को  काटते 
मचाते घमासान द्वंद्व
मन की कोमल भावनाओं  पर  
करते  जाते कठोर प्रहार


 तोड़ कर नियंत्रण की हर सीमा 
पागल, बेलगाम अश्व से,
बेखौफ पार कर जाते 
हर बंध,   हरेक दीवार.


सोचती मैं कभी तो,
 रख पाऊँगी इन्हें अपने वश में,
मुंह चिढ़ा आगे बढ़ जाते
छोड़ जाते मुझे लाचार .


न कोई आदि है इनका न अंत
न कोई सीमा न बंध
कामनाओ  के  विस्तृत नभ  में
पक्षियों से स्वेच्छाचारी विचार


2 comments:

  1. |अति उत्तम ! 'जल में मीन' रूपक अत्यंत सुंदर है! हर मनुष्य के मन में ये ऊहापोह सदैव रहती है| विवेक और स्वेछाचारी विचारों का द्वंद्व उतना ही पुराना है जितनी मानव सभ्यता|

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  2. धन्यवाद सुशीला
    आपकी टिप्पणियां सदैव ही उत्साह वर्धक होती हैं .

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