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Sunday, 17 May 2020

लोकल का बल


‘गुच्ची’ ‘अरमानी’ और ऐसे ही कितने बड़े-बड़े ब्रांड्स के पीछे भागती आज की युवा पीढ़ी, लोकल ब्रांड्स के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वाली पीढ़ी, दिखावे की ख्वाहिश में बड़े-बड़े माल्स के इंटरनेशनल शोरूम्स के चक्कर काटती पीढ़ी| यह चलन जो कुछ समय पहले तक महानगरों का हुआ करता था आज यही चलन छोटे-शहरों और कस्बों तक में पाँव पसारता दिखाई दे रहा है| अमीरों के यह ब्रांड्स के शौक धीरे-धीरे मध्यमवर्ग की युवा पीढ़ी में अपनी पैंठ बना चुके हैं| कभी ‘स्टेटस सिम्बल’ बनकर तो कभी ‘पीयर प्रेशर’ बनकर बड़े-बड़े ब्रांड्स हमारे दिलोदिमाग पर कब्ज़ा करते जा रहे हैं| बास्तव में ग्लोबल ब्रांड्स के प्रति दीवानगी और भारतीय ब्रांड्स को हेय दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति ने भारतीय इंडस्ट्रीज पर बहुत बड़ी घात की है| जिसप्रकार ऑनलाइन शॉपिंग के प्रति बढ़ती दीवानगी ने लोकल बाजारों के व्यापार पर प्रभाव डाला है उसी प्रकार बड़े विदेशी ब्रांड नाम की भेडचाल ने स्वदेशी ब्रांड और कुटीर उद्योगों को प्रभावित किया है| लोकल बाज़ार जाना, लोकल वस्तुएं खरीदना आज की पीढ़ी को बहुत निम्नस्तरीय लगता है| वे लोग जो विदेशी ब्रांड के नाम पर किसी भी चीज़ के लिए हजारों लाखों खर्च करने से नहीं हिचकिचाते, यदि लोकल मार्केट से सब्जी भी खरीदने निकलते हैं तो मोल-भाव में लग जाते हैं| बड़े शोरूम्स में बिना हील-हुज्जत किए चुपचाप अपना डेबिट-क्रेडिट कार्ड सरका देने वाला यह वर्ग गरीब दुकानदार से 100-50 रुपए कम करवाने में अपनी शान समझता है| तो ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी का लोकल के प्रयोग को बढ़ावा देने का आह्वान इस संकटकाल में प्रासंगिक ही नहीं अनिवार्य हो जाता है| समय आ गया है जब हम घर के मंदिरों तक में घुसपैंठ कर चुके चीनी सामान को बाय-बाय कर देसी को अपनाने की शुरुआत करें| लघु एवं कुटीर उद्योगों को बचाने की कवायद में यह पहल जरूरी भी है| बड़े-बड़े ब्रांड्स को टक्कर देने की क्षमता पैदा करने के लिए लघु एवं कुटीर उद्योगों को सशक्त बनाना होगा| लोगों के सहयोग और लोकल सामान के ज्यादा से ज्यादा प्रयोग के बिना यह संभव नहीं हो पाएगा|
लोकल को ग्लोबल बनाने का सफ़र इतना आसान तो नहीं होगा| लोगों के मन से लोकल सामान के प्रयोग के प्रति जो हीन भावना घर कर चुकी है उसे निकालना आसान नहीं होगा| पर कहीं न कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी|  ज़रूरत है मानसिकता बदलने की| जब हमें देसी पहनने पर शर्मिंदगी नहीं गर्व होगा, जब विदेशी ब्रांड लोगों की पहचान और उनके परिचायक नहीं बनेंग, जब हम गर्व से स्वदेशी को अपनाएँगे,  तब मिलेगा लोकल को बल और तभी ग्लोबल बनेगा ... लोकल|

‘आ अब लौट चलें



‘आ अब लौट चलें’ ......  जाने कितनी बार मन ने यह कहा|
‘घर आजा परदेसी तेरा देस बुलाए है’ ...... कितनी ही बार अपनी ज़मीन ने तड़प कर पुकारा| पर रोज़ी-रोटी की चिंता ने जो एक बार अपनी ज़मीन छुड़वाई तो वापसी दिन व दिन मुश्किल ही होता गया| पर ये निष्ठुर शहर कभी उनके न हुए| इन महानगरों के लिए वे केवल सस्ते मजदूर थे, जिन्होंने उनकी मेहनत का फायदा तो उठाया पर हमेशा उन्हें देखकर नाक भौं सिकोड़ते रहे और अपने खूबसूरत शहरों पर बदनुमा दाग मानते रहे| यह जानते हुए भी इन सस्ते मजदूरों के बिना हमारे शहरों के बहुत से काम रुक जाएँगे| फिर आया यह संकटकाल ‘कोरोना काल’ और ऐसे में इन महानगरों ने अपना असली चेहरा दिखा दिया| जिस रोटी का सपना दिखा शहरों ने उन्हें ललचाया था उसी रोटी को तरसा दिया| कोरोना के कहर ने इन गरीबों के सामने दोहरा संकटखड़ा कर दिया है। उनके लिए पहला संकट अपने को जिंदा रखना है और दूसरा संकट महानगरों में फैले कोरोना के संक्रमण से अपने को बचाना। न रहने की समुचित जगह, जो सामाजिक दूरी के नियमों का पालन कर पाएँ, न समुचित जानकारी न ही रोजी-रोटी का ठिकाना| जो मजदूर रोटी की तलाश में यहाँ आये थे वे अपने सामान की सिर पर लाद छोटे छोटे बच्चों को साथ लिए भूखे प्यासे पैदल ही अपने गाँवों की तरफ लौट चले|  कोई पैदल सैकड़ों किलोमीटर चला तो कोई साईकिल रिक्शा या जो भी साधन उपलब्ध हो पाया| इस बेमुरव्वत शहर से वे जल्दी जल्दी अपने गाँवों की अपनाहत भरी छाँव में लौट जाना चाहते थे| पता नहीं कितने अपने गाँव तक पहुँच पाए और कितनों ने रस्ते में दम तोड़ दिया| 
अगर आंकड़े देखें तो भारत में लगभग 14 करोड़ के आस-पास देशांतरिक प्रवासी हैं। इनमें करीब दो करोड़ प्रवासी मजदूर दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश एवं बिहार से हैं। माना जाता है कि हिंदी पट्टी के चार राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान से लगभग 50 प्रतिशत प्रवासी मजदूर आते हैं। दिल्ली एवं मुंबई इन प्रवासी मजदूरों के पसंदीदा शहर हैं, जहां बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिक कार्यरत हैं।
सवाल यह है कि जिस कमाई के भरोसे उन्होंने अपना गाँव छोड़ा था, वह इतनी नाकाफी थी कि कुछ दिन तक भी उनके परिवारों के पेट की भूख नहीं बुझा पाई| इन मजदूरों के भरोसे करोड़ों का कारोबार करने वाले उद्यमी, ठेकेदार और मालिकों ने  उनकी तरफ से मुँह फेर लिया| अब शहरों से पलायन करने के अलावा इनके पास और चारा भी क्या था| लाखों की भीड़ जत्थे बनाकर लौटने की सूरत खोज रही थी| पुलिस और प्रशासन एक-दूसरे पर इस सबकी ज़िम्मेदारी डाल कर अपना दामन झटकना चाहते थे | शहरों का यह संवेदनहीन चेहरा बावजूद सारी चमक-दमक के छिप नहीं पाया|
बहुत संभव से कि शहरों की इस बेरुखी से अब इन प्रवासी मजदूरों का मोहभंग हो गया हो, शायद अब अपनी ज़मीन छोड़कर वापस शहर का रुख़ करने में वे हज़ार बार सोचेंगे| पर अभी तो फिलहाल वे अपने वतन में अपने गांवों में जाकर भी गैर ही हो गए हैं| शहरों से लौट रहे मजदूरों को उनके गृह नगर और गांवों के लोग संदिग्ध दृष्टि से देख रहे हैं| उनके समीप जाते यह सोच रहे हैं कि कहीं वे इस महामारी के संवाहक बनकर तो नहीं लौटे हैं?