Pages

Friday, 29 March 2019

राब्ता

राब्ता हुआ
दो रूहों के दरम्यां
और दो रूहें मिलकर
एक सिम्त हो गईं
फिर ज़िस्म ने सेंध लगाई
रूहों के दरम्यां
दो ज़िस्म मिले पर
रूहें जुदा हो गईं...
अब शिकायतें करती हैं रूहें
एक दूसरे से
कि हममें-तुममें नहीं रहा
वो पहले-सा
राब्ता
शालिनी रस्तौगी 

ख्वाहिशें


कभी इच्छाओं पर
कभी ख्वाहिशों पर
कभी आँखों, कभी कानों, कभी जुबाँ पर
वो एक – एक कर ताले जड़ती गई
चाभियों को संभाला तो था ....
कि कभो वक्त मिलेगा
कभी तो वह मौका आएगा ..
फिर खोल लेगी वह
इन तालों को
आज़ाद कर लेगी ख़ुद को
अपनी ही कैद से
पर .. अब जब वक़्त मिला है तो
उन जाम हुए तालों
और जंग खाई चाभियों के गुच्छे लिए
ढूँढती वह
किस ख्वाहिश पे लगे ताले को
खोले किस चाभी से ...
एक बार फिर क़ैद रह गईं
उसकी जुबाँ .... उसकी इच्छाएँ
उसकी ख्वाहिशें ...
  शालिनी रस्तौगी